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________________ ४२२ धर्मशास्त्र का इतिहास तक के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा। आज १५ वर्षों से अधिक की अवधि समाप्त हो गयी और ऐसी व्यवस्था को गन्ध नहीं मिल पा रही है। दो-एक राज्यों में कन्याओं के विषय में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हुई है, किन्तु अनिवार्य शिक्षा अभी खटाई में पड़ी हुई है। चौथी पंचवर्षीय योजना चल रही है, इसके पूर्व तीन पंचवर्षीय योजनाएं कार्यान्वित हुईं, जिनमें अरबों की धन-राशि स्वाहा हो गयी, आगे पाँचवीं पंचवर्षीय योजना लागू होने जा रही है, किन्तु शिक्षा को अभी वह महत्त्व नहीं प्राप्त हो पा रहा है जो इसके लिए उपादेय है। अभी ११ वर्ष तक के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो पा रही है, १४ वर्ष तक की बात तो अभी बहुत दूर है। पंचवर्षीय योजनाओं में अनुमान से अधिक धन-राशि लग रही है, जिससे शिक्षा-सम्बन्धी प्रतिवचन की पूर्ति नहीं हो पाती। जब धन-राशि की कमी की पूर्ति नहीं हो पाती तो सर्वप्रथम शिक्षा-योजना की ही हत्या की जाती है। दुःख की बात है कि स्वतन्त्रता के उपरान्त भी उस जनता की शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं हो पा रही है जो मत देने वाली है और परोक्ष रूप से शासक होने वाली है ! देखें, हमारे योजना-नायक इस महान् कमी की पूर्ति कब कर पाते हैं। यह द्रष्टव्य है कि राज्य नीति के निदेशक सिद्धान्त (या तत्त्व) जनता के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के लिए आर्थिक प्रणाली में कतिपय व्यवस्थाएं उपस्थित करने की बातें उठाते हैं (देखिए धारा ४३, ४७ आदि), अर्थात लोगों के भौतिक पदार्थों एवं उपादानों पर बहुत अधिक बल दिया गया है। लगता है कि भौतिक उन्नति एवं समृद्धि के उपरान्त राज्य को और कुछ नहीं सम्पादित करना है। क्या ही अच्छा हुआ होता यदि उसी प्रकार नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए भी बल दिया गया होता। संविधान में ऐसा लिखित होना चाहिए था कि राज्य को लोगों में उच्च नैतिकता, आत्म-संयम, सहकारिता, उत्तरदायित्व-वहन, करुणा एवं उच्च प्रयास करने की भावनाओं के विकास के लिए साधन एकत्र करने चाहिए। मानव कई पक्षों वाला प्राणी है। केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही पर्याप्त नहीं है। मनुष्य में बौद्धिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक आकाक्षाएं भी की होती हैं। भविष्य का सामाजिक एवं आर्थिक स्वरूप हमारी परम्पराओं के सर्वोत्तम अंश पर आधारित होना चाहिए, और वह है धर्म का नियम, अर्थात् वे कर्तव्य जो सबके लिए समान हैं और जो मन याज्ञ० (१११२२) द्वारा उद्घोषित हैं। धर्म निरपेक्ष राज्य का अभिप्राय यह नहीं होना चाहिए और न ऐसा है कि राज्य ईश्वर विहीन हो या उसका सम्बन्ध नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों से नहीं है। हमारे प्रथम प्रधानमन्त्री स्व० पं० नेहरू ने इस बात पर बल दिया है--'धर्म आवश्यक हो या न हो, हमारे जीवन में कुछ तत्त्व के लिए तथा हमें एक-सा बाँध रखने के लिए किसी उचित आदर्श में हमारा विश्वास होना परम आवश्यक है। अपने आह्निक जीवनों की भौतिक एवं शारीरिक माँगों के ऊपर हमें उद्देश्य का (देखिए टु-डे एण्ड टुमारो, पृ०६)। यह कहा जा सकता है कि अधिकांश पुरुषों एवं नारियों के लिए धर्म ही एक ऐसा तत्त्व है जो उचित आदर्शों को उपस्थित करता है। लिंकन महोदय द्वारा उपस्थित लोक नीति की परिभाषा में तीसरा सूत्र है 'लोक (जनता या प्रजा या देशवासियों) के लिए,' (शासन), जिसका अर्थ है शासन सभी लोगों की भलाई पर ध्यान दे, न कि किसी विशिष्ट वर्ग या सम्प्रदाय का ही ध्यान रखे । आधुनिक लोकनीति पार्टियों अर्थात् दलों पर निर्भर रहती है और उसे बहुमत के निर्णयों के अनुसार कार्यशील होना पड़ता है। ऐसा बहुधा होता है कि कई दलों की उपस्थिति के कारण किसी एक दल को सब दलों को मिला कर उनसे अधिक मत नहीं प्राप्त हो पाते। ऐसा हो सकता है कि एक दल को दिये गये मतों का ४०% मिले और अन्य दलों के (जो विचारधाराओं में एक-दूसरे से भिन्न हैं) क्रम से २५%; २०% एवं १५% मिले। ऐसी स्थिति में ४०% मत पाने वाला दल राज्य करता है, किन्तु उसे जनता का www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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