________________
भावी वृत्तियाँ
૪૨
योग्यतम व्यक्तियों द्वारा शासित होने का अवसर बहुत कम देती है । जो थोड़े-से विचारवान् होते हैं उन पर विशाल जनता के मत छा जाते हैं । हमें मानव-व्यापारों को चलाने के लिए वैलट वॉक्स की लाटरी से अपेक्षाकृत कोई अधिक अच्छा ढंग अपनाने का प्रयास करना चाहिए ( पृ० २०-२२ ) । रेने गुइनॉन ने अपने ग्रन्थ 'क्राइसिस आव दि माडर्न वर्ल्ड' (आर्थर आस्वॉन द्वारा अनूदित, लण्डन, १६३२) में लिखा है- 'कानून का निर्माण बहुमत द्वारा परिकल्पित किया गया है, किन्तु जिस बात पर लोग ध्यान नहीं देते वह यह है कि यह मत ( अर्थात् बहुत से लोगों का मत ) बड़ी सरलता से प्राप्त किया जाता है या परिमार्जित हो सकता है, अर्थात् मत को हम बना सकते हैं । बहुमत में अधिकतर अयोग्य लोग होते हैं और उनकी संख्या उन लोगों की अपेक्षा बहुत होती है, जो विषय के पूर्ण ज्ञान के उपरान्त ही अपनी सम्मति दे सकते हैं ( पृ० १०८ ) ।
उपर्युक्त शब्द यूरोप के उन देशों के विषय में हैं जहाँ पर कई दशाब्दियों से पढ़े-लिखे ( साक्षर ) लोगों की संख्या एक प्रकार से शत-प्रतिशत है। लोकतन्त्रीय व्यवस्था का तात्पर्य है कि मतदाता विभिन्न दलों की नीतियों एवं कार्यक्रमों से भली भाँति परिचित हैं और उन्हीं के अनुसार मतदान करते हैं । यह व्यवस्था पहले से ही मान लेती है कि देश में शिक्षा है, नागरिक लोग बुद्धिमान हैं, वे विधि-विधानों का सम्मान करते हैं, उनमें सहिष्णुता है, कम-से-कम अपने देशवासियों के प्रति उनमें भ्रातृ-भाव पाया जाता है और समाज में अधिक या कम एकरूपता पायी जाती है । किन्तु जब, जैसा कि आज के भारत में पाया जाता है, अधिक संख्या में लोग अपढ़ होते हैं तो स्थिति भयंकर हो उठती है। अच्छे दिनों की आशा में हमें आज की स्थिति को सह लेना चाहिए, यद्यपि बहुत-से विदेशी अपनी असहिष्णुता का प्रदर्शन कर हमारी लोकनीतिक व्यवस्था की खिल्ली उड़ाते हैं ।" सन् १६६१ की जन-संख्या के आंकड़ों से प्रतीत होता है कि सन् १६५१ में पढ़े-लिखों की जन-संख्या, जो १६.६% थी अब वह २३.७% हो गयी है। डीन इंज ने अपने ग्रन्थ 'क्रिश्चियन एथिक्स' ( १६३० ) में उस इंगलैण्ड की राजनीति के विषय में टिप्पणी की है, जहाँ के मतदाता अधिकांशतः साक्षर हैं- 'हमारी राजनीति इतनी भ्रष्टाचार-संकुल है कि बहुत से लोग तानाशाही का स्वागत करेंगे ।' ब्लेयर वॉलेस ने अपने ग्रन्थ 'कॉरप्शन इन वाशिंगटन' (गोलांज, लण्डन, १६६० ) में लिखा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थिति विलक्षण है, वहाँ पर ईमानदार अथवा सच्चा व्यक्ति जिसके हाथ में शक्ति है वह अपने को भयंकर नैतिक संकीर्णावस्था में पाता है, एक ओर उसके समक्ष जनता के प्रति उत्तरदायित्त्व है और उसे ईमानदारी बरतनी है तो दूसरी ओर उसे अपने मित्रों एवं सहयोगियों के प्रति वफ़ादारी ( विश्वासभा जनता) प्रदर्शित करनी है। हमारे देश की दशा के विषय में न कुछ कहना ही उचित है। हमारे मन्त्रियों एवं राज्यकर्मचारियों के समक्ष उसी प्रकार की विषम अवस्थाएँ हैं, विशेषतः जब कि परमिटों एवं लाइसेंसों को बाँटने के लिए बहुत से नियम एवं व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं !
राज्य-नीति के सूचक सिद्धान्त ( अथवा तत्त्व) धारा ३० से ५१ में लिखित हैं और धारा २७ में ऐसी व्यवस्था है कि उनका कार्यान्वय किसी न्यायाधिकरण द्वारा नहीं होना चाहिए, किन्तु वे देश के शासन में मौलिक । धारा ४५ में ऐसा व्यवस्थित है कि राज्य संविधान लागू हो जाने के दस वर्षों के भीतर १४ वर्ष की अवस्था
५. ए० कोयेस्टलर ने अपने ग्रन्थ 'लोटस एण्ड रॉबॉट' ( लण्डन, १६६०) में लिखा है : 'भारत में डेमॉक्रेसी ( लोकनीति ) केवल नाम की है, इसे बापूक्रेसी (बापूवाद) कहना अधिक ठीक होगा' ( पृ० १५६ ) । लेखक महोदय खिल्ली उड़ाते हुए बापू (महात्मा गान्धी) के प्रभाव की ओर संकेत करते हैं, क्योंकि आरम्भिक दिनों में लोग कांग्रेस को न कह कर गांधी जी को वोट देते थे !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org