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धर्मशास्त्र का इतिहास
में भारत के अतीत, हमारी समान अभिरुचियों, समान भविप्य, संस्कृत में पाये जाने वाले ज्ञान एवं विचार के तत्त्वों, क्षेत्रीय भाषाओं तथा यगों से चली आयी सहिष्णुता की भावना का समावेश होना चाहिए। आरम्भिक पाठशालाओं से ही भारत की सांस्कृतिक एकता से सम्बन्धित मौलिक बातों का अध्ययन-अध्यापन आरम्भ कर देना चाहिए, जिससे बच्चों में राष्ट्रीयता की भावना का उद्रेक हो। प्रत्येक नागरिक के मन में ऐसी धारणा बँध जानी चाहिए कि हम सदा से एक देश के नागरिक रहे हैं, विदेशियों ने सदा से इस देश को एक माना है, हम सभी सदा से भारत के विशाल ज्ञान एवं आध्यात्मिक संस्कृति के अधिकारी रहे हैं, हमें इस संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में प्राण-प्रण से लग जाना चाहिए । यह कार्य १४ वर्षों तक निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा द्वारा सम्पादित किया जा सकता है।
संविधान ने सातवें परिशिष्ट में जो विषय रखे हैं और उनका संघ, राज्य एवं समवर्ती (कॉनकरेण्ट) सूचियों में जिस प्रकार विभाजन हुआ है, वह त्रुटिपूर्ण है। उदाहरणार्थ, मादक पेय पदार्थो का उत्ता उत्सादन, निर्माण, प्राप्ति, क्रय एवं विक्रय राज्य की सूची में हैं (राज्य सूची, मची-२ में आठवां विषय)। इसका परिणाम यह हुआ है कि कुछ राज्यों में मादक पेय पदार्थों पर प्रतिबन्ध है तो कहीं पूर्ण छट है । इससे हमारे चरित्र पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा है । कहीं-कहीं धन-वद्धि के लिए प्रतिवन्ध हटा लिये गये हैं। ऐसी स्थिति अशोभनीय है। चाहिए तो यह था कि इसे हम मंघ की मची में रखते और देश के नागरिकों के चरित्र-निर्माण के लिए आवश्यक नियम-प्रतिवन्ध बनाते ।
उपर्युक्त वातों से प्रकट होता है कि हमारा संविधान जो दो वर्षों के सुविचार में निर्मित हआ और जिसके निर्माण में दिग्गज बुद्धिशाली लोगों का साहाय्य प्राप्त था, कई बातों में असंतोषप्रद है।
हमारा जनतन्त्र लोकनीतिक है। लिकन ने लोकनीति की जो परिभाषा की है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है, यथा-'वह शासन जो लोक का है, लोक द्वारा होता है तथा लोक के लिए होता है। ये तीनों वात, यथा लोक (जनता या प्रजा या देशवासियों) का शासन, लोक (जनता या प्रजा या देशवामियों) द्वारा शामन तथा लोक (जनता या प्रजा या देशवासियों ) के लिए शासन, एक सम्यक लोकनीति में पायी जाती हैं। यूनान के नगर-राज्यों में सभी वयस्क नागरिक (उन दासों को छोड़ कर जो नागरिकों से कहीं अधिक थे) एक स्थान पर एकत्र हो सकते थे, वाद-विवाद में भाग ले मकते थे तथा विधि-विधान के निर्माण में सक्रिय सहयोग दे सकते थे । किन्तु यह बात वहाँ असम्भव है जहाँ एक विशाल देश में करोडा मतदाता नागरिक फैले हों । अत: लिकन महोदय की परिभाषा के एक अंश पर पानी फिर गया । करोडों व्यक्ति अपने पर शासन नहीं कर सकते, यह एक असम्भावना है। वे केवल कछ लोगों को अपने शासक के रूप में चुन सकते हैं। प्राचीन काल में जब सत्ता राजा के हाथ में रहती थी तो गजा उत्तराधिकार के द्वारा या विजय के द्वारा या विरोधियों के मुण्ड (सिर) फोड़ कर शासक हो पाता था। किन्तु लोकनीति में शासक या शामक लोग मुण्ड गिनकर चुना जाता है या चुने जाते हैं। डा० राधाकृष्णन् ने अपने ग्रन्थ ‘कल्किन् और दि फ्यूचर आव सिविलिज़ेशन' (चौथा संस्करण, १६५६) में लिखा है--'वास्तव में, लोकनीति कार्यरूप में किसी देश को उसके
उपद्रवों के कारण अंग्रेजी को सहगामिनी भाषा के रूप में अनिश्चित काल के लिए मान लिया गया है। दक्षिण के कुछ मन फिरे लोगों की भाँति बंगाल के कुछ लोगों ने भी उपद्रव किये थे, किन्तु अब संविधान में सुधार हो जाने से उपद्रव में नर्मी आ गयी है (रूपान्तरकार)।
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