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________________ भावो वृत्तियाँ ४२० बहमत नहीं प्राप्त रहता है। दलीय पद्धति से सामान्यतः शक्ति के लिए संघर्ष उठ खड़ा होता है और जनता का नैतिक स्तर गिर जाता है, विशेषत: उस देश में जहाँ जनता का केवल ; भाग (पुरुष एवं स्त्री दोनों) केवल, अपनी क्षेत्रीय भाषा में लिग्व-पढ़ सकता है। प्रस्तुत लेखक ऐसा नहीं मानता कि निरक्षरता का अर्थ बुद्धि का अभाव है। किन्तु जब तक व्यक्ति स्वयं नहीं पढ़ पाता और अपने पड़े हुए पर सोच-विचार नहीं कर पाता, वह कदाचित ही उस विषय के पक्ष या विपक्ष में अच्छी प्रकार से निर्णय ले सके, जो मतदाताओं के समक्ष योजना या किसी नीति के रूप में उपस्थित किया जाता है। कानन अंग्रेजी में लिखे जाते हैं। लोक-सभा में अधिकांश वक्ता अंग्रेजी में भाषण करते हैं (केवल थोड़े-से लोग हिन्दी में बोलते हैं) और जटिल कानून यों ही बहुमत से, या जैसा अवसर रहा, सर्वसम्मति से पारित हो जाते हैं। जो देश अत्यन्त कम शासित होता है वह अत्युत्तम रूप से शासित होता है । लोक-सभा में काननों की बाढ़ देखने में आती है। सन् १९५० से १६५६ के बीच केवल सात वर्षों में ४५० कानून लोक-सभा में पारित हुए। इनमें से कुछ कानून हिन्दुओं को उनके कोम्बिक सम्बन्धों एवं अन्य स्वरूपों में मार्मिक रूप से प्रभावित करते हैं। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। हिन्दू पुत्रीकरण (दत्तक) कानून तो प्राचीन हिन्दू सिद्धान्तों से बहुत आगे चला गया। प्राचीन काल में दो सिद्धान्त थे, यथा--आध्यात्मिक कल्याण एवं हित के लिए केवल लड़का ही अपनाया जाता है, जो अवस्था एवं अन्य बातों में पुत्र के समान हो। स्त्रियाँ गोद नहीं ली जा सकती थीं, केवल विधवा अपने पति के आध्यात्मिक लाभ के लिए किसी को गोद ले सकती थी। ये सिद्धान्त अब हवा में उड़ा दिये गये हैं। एक बात उल्लेखनीय है । हिन्दू व्यवहार (कानून) को प्रभावित करने वाले कुछ कानूनों द्वारा लोकाचारों को धता बता दिया गया है, देखिए, हिन्दू विवाह कानून (१६५५ का २५ वाँ कानून, विभाग ४), हिन्दू उत्तराधिकार कानून (१६५६ का ३० वाँ कानून, विभाग ४ का १)। १६५६ के ७८ वें कानून हिन्दू पुत्रीकरण एवं भरण (पालन-पोपण) कानून द्वारा व्यवस्था दी गयी है कि गोद लिया जाने वाला व्यक्ति १५ वर्ष से अधिक का नहीं होना चाहिए और गोद लिये जाने वाले व्यक्ति एवं गोद लेने वाली स्त्री तथा गोद ली जाने वाली लड़की एवं गोद लेने वाले पुरुष में २१ वर्षों का अन्तर होना चाहिए। इस विषय में देखिए विभाग १०, विषय ४ तथा विभाग ११, विषय ४ । किन्तु विभाग १० में ऐसी व्यवस्था है कि लोकाचार के विरुद्ध ऐसा नहीं होना चाहिए। यह आश्चर्य है और समझ में नहीं आता कि इस मामले में लोकाचार को क्यों मान्यता दे दी गयी है जब कि अन्य विषयों (मामलों) में लोकाचारों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। सन् १६५५ के २५ वें कानून (हिन्दू विवाह कानून) ने बड़े-बड़े परिवर्तन कर दिये हैं, जिनके विषय में अधिकांश हिन्दू कुछ भी नहीं जानते। इस कानुन के पूर्व एक हिन्दू सिद्धान्ततः (किन्तु व्यवहारत: बहुत कम) दो या अधिक नारियों से विवाह कर सकता था और अनुलोम विवाह (एक उच्च वर्ण के पुरुष का किसी हीन वर्ण की नारी से विवाह) कुछ उच्च न्यायालयों द्वारा (यथा-इलाहाबाद एवं मद्रास) अवैध माना जाता था। किन्तु अब १६५५ के कानन द्वारा विवाह एक पत्नीत्व का द्योतक हो गया (अब एक पुरुष एक से अधिक स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता) और किसी जाति का व्यक्ति किसी भी जाति की नारी से विवाह कर सकता है तथा हिन्दू, सिख, बौद्ध या जैन धर्मों के व्यक्तियों के विवाह अब वैध मान लिये जाते हैं। जिन दिनों यह कानन बन रहा था, कछ लोगों ने एक स्त्री विवाह कानन द्वारा मसलमानों (जो करान के अनसार एक साथ चार नारियों को पत्नी के रूप में रख सकते हैं) को भी बाँधना चाहा किन्तु उनकी बात इससे काट दी गयी कि ऐसा करने से मुसलमान नाराज़ हो सकते हैं । अन्य व्यवस्थाएँ, यथा विवाह के विषय में बौद्ध, जैन एवं सिख हिन्दू हैं, जहाँ एक ओर सब को एक साथ ले जाने वाली हैं, वहीं वे अपढ़ लोगों के मन में द्विधा उत्पन्न करने वाली हैं और अन्ततोगत्वा उनसे हिन्दू-समाज में छिन्न-भिन्नता उत्पन्न हो जाने की सम्भावना है। कट्टर लोग (अर्थात् रूढ़िवादी) इस प्रकार के मिश्र विवाहों को घृणा की दृष्टि से Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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