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भावी वृत्तियाँ
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पक्ष में बहत-से कानन बनाये गये थे। अंग्रेज व्यापारी भारत में बने रेशमी एवं सती कपड़ों को नहीं बेच सकते थे। इस प्रकार लगभग एक शती से अधिक काल तक भारत का रक्त चूसा जाता रहा और बह संसार के अत्यन्त दरिद्र देशों में परिगणित होने लगा। दादाभाई नौरोजी ने अपने ग्रन्थ 'पावर्टी एण्ड अन्-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया' (लण्डन, १६०१, ६७५ पृष्ठों) में इस विषय पर बड़ी योग्यता से प्रकाश डाल है । अंग्रेजों के उपनिवेशी राज्य के प्रमुख तत्त्व ये थे---पूर्ण राजनीतिक अधीनता, प्रमुख आर्थिक क्रियाशीलता विदेशियों के हाथों में थी, भारत में विदेशी पूंजी का ही प्रयोग होता था, कुछ विषयों में, यथा-रेलवे आदि में भारत में अंग्रेजी शासकों द्वारा विदेशी पूंजी के लाभ एवं ब्याज के बारे में प्रतिभूति (गारण्टी) थी, भारतीयों से उगाहे गये करों से ही उसका भुगतान होता था, बड़े-बड़े व्यवसायों की बागडोर विदेशियों के हाथों में थी तथा उनसे केवल विदेशियों का ही लाभ होता था एवं भारत की भूमि एवं जनता ब्रिटेन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मानो एक यन्त्र थी। अत्यधिक दारिद्र्य एवं क्लेश का मूल्य चुकाने के फलस्वरूप भारत को शान्ति एवं राजनीतिक एकता प्राप्त हुई। स्पष्ट है , आज के भारत की बहुत-सी आर्थिक समस्याओं का मूल ब्रिटेन की भयंकर उपनिवेशिक नीतियों में ही पाया जाता है ।
लगभग एक शती से अधिक काल तक भारतीय शासन की सेना अंग्रेज अधिकारियों द्वारा प्रशासित थी। बीसवीं शती में लगभग सात सहस्र अधिकारी (लेपिटनेण्ट , कैप्टेन, मेजर, कर्नल) थे, जिनमें एक भी भारतीय प्रथम महायद्ध तक "किंग कमीशन' नहीं पा सका। फिर कुछ व्यक्ति प्रतिवर्ष इंगलैण्ड में प्रशिक्षण के लिए भेजे जाने लगे। 'इण्डियन सिविल सर्विस' (आई० सी० एस०) की परीक्षा इंगलैण्ड में होती थी. यद्यपि सन १८६३ में ही 'हाउस आव कामंस' (इंगलैण्ड की लोकसभा) ने ऐसा प्रस्तावित कर दिया था कि तत्संबंधी परीक्षाएँ एक-साथ इंगलैण्ड एवं भारत में हों। १६ वीं शती के अन्तिम चरण में बहुत ही थोडे लोग इस स्वर्गोत्पन्न नौकरी की परीक्षा में बैठने के लिए इंगलैण्ड जाते थे और अपने को उस योग्य सिद्ध करने में समर्थ होते थे। कलक्टर, जनपद के न्यायाधीश, पुलिस अधीक्षक, मेडिकल आफिसर अधिकांश में सभी ब्रिटिश थे । कालेजों में सभी प्रोफेसर तथा यहाँ तक कि कुछ स्कूलों के हेडमास्टर भी अंग्रेज ही होते थे। स्कलों की पुस्तकें डी० पी० आई० द्वारा निर्धारित होती थीं, और ऐसे उच्चाधिकारी विदेशी ही होते थे । जब अंग्रेजों ने सन् १९४७ में भारत छोड़ा तो उन दिनों प्रायमरी शिक्षा भी थोड़े ही बच्चों को दी जाती थी। इन बातों की ओर जो संकेत किया जा रहा है वह इसलिए कि हम लोग आपस में एकता के साथ रहें। ऐसा न हो कि हमारे गृह-कलह से तथा पारस्परिक ईर्ष्या एवं विरोधी तत्त्वों के फलस्वरूप कुछ बाह्य तत्त्व पुनः शक्तिशाली हो जाये और हमारी स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचे। हमें अपने वैरी पड़ोसियों से सदेव सतर्क रहना है।
मोल ने सन १९०६ में यह उदघोषित किया कि भारत में लोकनीतिक व्यवस्था न स्थापित की जाय और उसने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की पद्धति निकाल कर हिन्दू-मुस्लिम के संघर्ष को आगे बढ़ाया। किन्तु माण्टेग्यू ने मोर्ले की स्थापना का विरोध किया और ऐसा उद्घोष किया किब्रिटिश शासन की इच्छा है कि भारत क्रमश: ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर नियमान मोदित शासन का अनभव करता हुआ स्वायत्त संस्थाओं का विकास करे। इसी प्रकार कई प्रकार के विरोधी एवं अन्तविरोधी प्रयत्न चलते बने। माण्टे ग्यू द्वारा स्थापित द्वैध शासन, रौलट कानून, पंजाव की अशान्ति, जनरल डायर के अत्याचार एवं जलियाँवाला बाग की दुर्धर्ष घटनाएँ जिनमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार ३०० व्यक्ति मारे गये तथा १२०० घायल हए, डायर को बलवश अवकाश देना तथा उसके अंग्रेज पक्षपातियों द्वारा उसको ३० सहन पौण्डों की सेंट
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