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हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता को मौलिक एवं मुख्य विशेषताएं या अधिक ग्रहों में यदि क्रम से मंगल, बुध, बृहस्पति, चन्द्र, शुक्र, शनि या सूर्य प्रबल होंगे तो उस कुण्डली वाला व्यक्ति क्रम से बौद्ध, आजीवक, मिक्षु (वैदिक संन्यासी), वृद्ध (कापालिक ), चरक, निर्ग्रन्थ (जन संन्यासी) या वह संन्यासी होता है जो वन में उत्पन्न होने वाले कन्द-मूल-फलों पर निर्वाह करता है। इससे सिद्ध होता है कि वराहमिहिर (छठी शती) के बहुत पहले से भारत में संन्यासियों के कई प्रकार प्रसिद्ध हो चुके थे।
वर्ण-पद्धति ने सम्पूर्ण समाज को कई दलों में बाँट दिया था और उसका सम्बन्ध पूरे जन-समुदाय से था. किन्तु आश्रम-सिद्धान्त समाज के सदस्यों को सम्बोधित था और उनके समक्ष एक ऐसा मापदण्ड था जिसके अनसार वे अपने जीवन को व्यवस्थित क्रम में रख सकते थे और यह जान सकते थे कि विभिन्न लक्ष्यों के लिए किस प्रकार की तैयारियाँ करनी हैं। ड्यशन ने अपने ग्रन्थ 'फिलॉसॉफी आव दि उपनिषदस' (अंग्रेजी अनुवाद, १६०६१० ३६७) में आश्रम-सिद्धान्त के विषय में लिखा है-'मानव-समाज के इतिहास की इतनी अधिक उपलब्धि नहीं है कि वह इस विचार (आश्रम व्यवस्था) की उत्कृष्टता के पास आ सके (अर्थात इसकी श्रेष्ठता को प्राप्त कर सके)।'
(८) कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त-हिन्दू धर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित जितने मौलिक सिद्धान्त हैं उनमें कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। यह बहुत-सी बातों में विलक्षण है, विशेषतः इस बात में कि आरम्भिक काल से ही इसका अपना विशिष्ट साहित्य निरन्तर गति से चलता एवं बढ़ता है। इस विषय में हमने विशद रूप से गत अध्याय में पढ़ लिया है। यहाँ पर कुछ और कहना आवश्यक नहीं है।
(E) अहिंसा का सिद्धान्त-इस विषय में उपनिषदों, महाभारत, धर्मशास्त्रों एवं पुराणों में जो कुछ कहा गया है उसे हमने इस महाग्रन्थ के मूलखण्ड २, पृ॰ १० एवं प्रस्तुत खण्ड के मूल पृ० ६४४-६४७ में लिख दिया है। कुछ बातें संक्षेप में यहाँ दी जा रही हैं। ऋग्वेद में ऋतु एवं यज्ञ शब्द सैकड़ों बार प्रयवत हए हैं। दोनों में अन्तर इस प्रकार प्रकट किया जाता है कि 'यज्ञ' शब्द बडे सामान्य ढंग से भी प्रयुक्त होता रहा है (इसके अन्तर्गत मन ३१७० द्वारा व्यवस्थित प्रतिदिन के पाँच धार्मिक कृत्य भी सम्मिलित हैं), किन्तु ऋतु का सम्बन्ध सोमयाग ऐसे पवित्र वैदिक यज्ञों से है। पाणिनि (४।३।६८) ने दोनों को पृथक्-पृथक् उल्लिखित किया है और यही बात गीता (६।१६, अहं ऋतुरहं यज्ञ:) में भी पायी जाती है। इन यज्ञों में पशु की बलि होती थी, किन्तु सभी यज्ञों में नहीं । क्रमश: यह ऋग्वेदीय काल में भी सोचा जाने लगा कि अग्नि की पूजा समिधा से की जा सकती है, या पके भोजन से या घृत से या वेदाध्ययन से या प्रणामों से या किसी पवित्र यज्ञ से की जा सकती है। इस विषय में ये सभी बराबर हैं और ऐसे उपासक को (शत्रुओं से युद्ध करने के लिए) तेज चलने वाले घोड़ों का पुरस्कार मिलता है, गौरव मिलता है और उसे किसी प्रकार की देवी या मानवी विपत्ति का सामना नहीं करना पड़ता है (ऋ० ८1१६५-६) । कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों की उक्तियाँ भी इसी प्रकार की हैं। ऐतरेय ब्रा० (६६) में आया है- 'जो पुरोडाश से यज्ञ करता है वह पशुओं के मेध (यज्ञ) के समान ही यज्ञ करता है ।१६ त० ब्रा० ( ३।३।३ ) में आया है कि वन के यज्ञिय पशु अग्नि के चतुर्दिक घुमा दिये जाने के उपरान्त अहिंसा के विचार से छोड़
१६.सर्वेषां वा एष पशमां मेधन यजते यः पुरोडाशन यजते।ऐ०ब्रा०(६६); पर्यग्निवृतानारण्यानत्सजयहिंसायं । से० प्रा० (३॥६॥३॥३)।
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