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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
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कहा है, जो जग जाने पर सुषुम्ना नाड़ी (जो रीढ़ की हड्डी के केन्द्र में होती है) द्वारा मूलाधार चक्र को पार करती हुई, ६ चक्रों से होकर सहस्रार चक्र में शिव से मिल जाती है और पुनः मूलाधार में आ जाती है । ६ चक्रों में प्रत्येक के दलों की कुछ निश्चित संख्या होती है, यथा ४, ६, १०, १२, १६ एवं २ ( कुल ५० दल) जो क्रम से मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा के लिए व्यवस्थित हैं (देखिए रुद्रयामल, १७ वाँ पटल, श्लोक ५५-५६ ) । वर्णमाला के अक्षर भी ५० हैं ( अ से क्ष तक ) और वे ६ चक्रों के दलों में निर्धारित हैं, यथा--'ह' एवं 'क्ष' आज्ञा के लिए, १६ स्वर गले में विशुद्ध के लिए, 'क' से 'ठ' तक ( कुल १२ ) अनाहत के लिए, 'ड' से 'फ' तक (कुल १०) मणिपुर के लिए, 'ब' से 'ल' तक ( कुल ६) स्वाधिष्ठान के लिए तथा 'ब' से 'स' तक ( कुल ४) मूलाधार के लिए निर्धारित हैं। कुछ तन्त्रों में ६ चक्रों के रंगों का भी उल्लेख है और वे ५ तत्त्वों एवं मन के सदृश कहे गये हैं। योग एवं तन्त्र की ये परिकल्पनाएँ प्राचीन उपनिषद्सम्बन्धी सिद्धान्तों के विकास मात्र हैं ४५ ।
अक्षरों से शब्द बनते हैं, शब्द मन्त्रों का निर्माण करते हैं और मन्त्र शक्ति के अवतार होते हैं। इसके उपरान्त शारदातिलक ने आसन, मण्डप, कुण्ड, मण्डल, पीठों (ज़िन पर देवों की प्रतिमाएँ रखी जाती हैं), दीक्षा, प्राणप्रतिष्ठा ( मूर्तियों में प्राण डालना ), यज्ञिय अग्नि की उत्पत्ति का उल्लेख किया है। शारदातिलक (१।१०६ एवं ५।८१-६१), वरिवस्यारहस्य ( २८० ), परशुरामकल्पसूत्र ( १1४, 'षट् - त्रिंशत् तत्त्वानि विश्वम्' ) तथा अन्य तान्त्रिक एवं आगमिक ग्रन्थों ने ३६ तत्त्वों (जिनमें सांख्य के तत्त्व भी सम्मिलित हैं) का उल्लेख किया है । ७ वें अध्याय से २३ वें अध्याय तक विभिन्न देवों के मन्त्रों, उनके निर्माण, प्रयोग एवं परिणामों, अभिषेकों एवं मुद्राओं की चर्चा है। २४ वें अध्याय में मन्त्रों एवं २५ वें में योग का वर्णन है । शारदातिलक की विशेषता यह है कि इसमें केवल मन्त्रों एवं मुद्राओं का ही उल्लेख है, कदाचित् ही कहीं अन्य मकारों की चर्चा है । गोविन्दचन्द्र, रघुनन्दन, कमलाकर, नीलकण्ठ, मित्रमिश्र आदि मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों ने शारदातिलक को प्रामाणिक तन्त्र के रूप में उद्धृत किया है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज ने एक विद्वत्तापूर्ण निबन्ध (जर्नल आव् दि गंगानाथ झा
४१. उपनिषदों के काल से ही हृदय की उपमा कमल से दी जाती रही है और ऐसा आया है : "हृदय की १०१ नाड़ियाँ हैं, इनमें एक ललाट में प्रविष्ट होती है; इसके द्वारा व्यक्ति (जो मुक्त हो चुका है) ऊपर उठता हुआ अमरत्व को प्राप्त करता है"। देखिये, 'अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म बहरोऽस्मिन्नन्तराकाशस्तमिन्यदन्तस्तदन्वेष्टव्यं तद्भावं विजिज्ञासितव्यमिति । छा० उप० ( ८1१1१ ) ; तदेष श्लोकः । शतं ant हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका । तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्कन्या उत्क्रमणे भवन्ति । छा० उप० (८।६।६) । कठोप० (६ । १६) में भी 'शतं चैका' वाला श्लोक आया है। मिलाइये प्रश्नोप० ( ३६ ) जहाँ ऐसा ही वक्तव्य किया गया है। और मिलाइये वे० सू० ( ३।२।७ ) 'तदभावो नाडीषु तच्छू तेरात्मनि च' एवं ४।२।१७; शंकराचार्य ने वे० सू० (४/२/७ ) के भाष्य में 'शतं चैका' को उद्धृत किया है। मिताक्षरा (याज्ञ० ३३१०८-१०६) ने इडा, पिंगला, सुषुम्ना एवं ब्रह्मरन्ध्र का उल्लेख किया है और रुद्रयामल (६०४६) ने दस नाड़ियों का उल्लेख कर इड़ा आदि को सोम, सूर्य एवं अग्नि कहा है। मंत्र्युपनिषद् ( ६।२१ ) में आया है : 'अथान्यत्राप्युक्तम् । ऊर्ध्वगा नाडी सुषुम्नाख्या प्राणसंचारिणी तात्वन्तविच्छिन्ना । कभी-कभी 'सुषुम्णा' भी लिखा जाता है। बृह० उप० (२।१।१६) ने ७२००० नाडियों का उल्लेख किया है जो हृदय से उभरकर पुरीतत् की ओर जाती हैं। और देखिये याज्ञ० (३।१०८), जहाँ यही बात कही गयी है ।
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