________________
२४
धर्मशास्त्र का इतिहास.
शक्ति मानव शरीर में कुण्डलिनी का रूप धारण करती है । शम्भु से बिन्दु के रूप में क्रम से सदाशिव, ईश, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा उदित होते हैं; अव्यक्त बिन्दु से क्रम से सांख्य पद्धति में उल्लिखित महत्-तत्त्व, अहंकार तथा अन्य तत्त्व उद्धृत होते हैं । शक्ति विभु (सभी स्थानों में रहने वाली ) है, तब भी अत्यन्त सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह सर्प की कुण्डली या कुण्डलिनी के समान है और संस्कृत वर्णमाला के ५० (अ से क्ष तक) अक्षरों के रूप में अभिव्यक्त होती है।
आगे कुछ कहने के पूर्व अब हम ६ चक्रों के विषय में विवरण उपस्थित करेंगे, क्योंकि कतिपय तन्त्रों में यह एक महत्वपूर्ण भाग है । मानव शरीर में, ऐसा कहा गया है, ६ चक्र होते हैं, यथा-- आधार या मूलाधार ( सुषुम्ना के आधार पर), स्वाधिष्ठान (जननेन्द्रिय के पास ), मणिपुर (नाभि के पास), अनाहत (हृदय के पास ), विशुद्ध (गले के पास ) एवं आज्ञा ( भौंहों के बीच में ) । इनके अतिरिक्त, मस्तक के ( लालट के) भीतर सहस्रदल के बीजकोश के रूप में ब्रह्मरन्ध्र है । चक्रों को बहुधा लोग आधुनिक शरीर-विज्ञान द्वारा प्रदर्शित स्नायुओं के गुच्छों के समान मानते हैं, किन्तु बात वास्तव में ऐसी है नहीं । संस्कृत ग्रन्थों में जिस कुण्डलिनी एवं चक्रों का वर्णन है वे स्थूल देह से सम्बन्धित नहीं हैं, प्रत्युत वे सूक्ष्म देह में अवस्थित होते हैं। धारणा यह है कि कुण्डलिनी शक्ति ( ' कुण्डलिनी' का अर्थ संस्कृत में सर्प होता है) मूलाधार चक्र में सर्प के समान कुण्डली मारकर सोयी रहती है, उसे योग के साधनों एवं गम्भीर ध्यान से जगाना होता है४० । शारदातिलक ने साधक से कुण्डलिनी पर ध्यान करने को
चक्रों पर प्रयोग करना आरम्भ न कर दे और न कुण्डलिनी ही जगाना आरम्भ कर दे। यह सब योग के ज्ञाता के निर्देशों के अनुसार ही किया जा सकता है, नहीं तो भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। प्राणायाम, धारणा की टिमय विधियों के विषय में वायुपुराण (१११३७-६० ) में आया है कि अज्ञानी द्वारा योगसाधना करने पर भयंकर परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, यथा-- बुद्धि-क्षीणता, बहरापन, गूंगापन, अन्धापन, स्मृतिक्षीणता, पहले बुढ़ौती का आगमन एवं रोग। इन दोषों को दूर करने के लिए इस पुराण ने औषधियाँ भी बतायी हैं।
४०. देवीभागवत (११।१।४३ ) में आया है : 'आधारे लिंगनाभिप्रकटितहृदये तालुमूले ललाटे द्वे पत्रे षोडशारे द्विदशदशदलद्वादशार्धे चतुष्के । नासान्ते बालमध्ये डफकठसहिते कण्ठदेशे स्वराणां हं क्षं तत्त्वार्थयुक्तं सकलदलगतं वर्णरूपं नमामि ॥' जब कुण्डलिनी सहस्रार में पहुंचती है तो उसमें अमृत बहने लगता है, यह ४७ वें श्लोक में आया है : 'प्रकाशमानां प्रथमे प्रयाणे प्रतिप्रयाणेप्यमृतायमानाम् । अन्तः पदव्यामनुसञ्चरन्तीमानन्दरूपामबलां प्रपद्ये ॥' मूलोन्निब्रभुजंगराजमहिषीं यान्तीं सुषम्नान्तरं । भित्त्वाधारसमूहमाशु विलसत्सौरामिनीसन्निभाम् ॥ व्योमाम्भोजगतेन्दु मण्डलगलद् दिव्यामृतौघसुतां सम्भाव्य स्वगृहं गतां पुनरिमां सञ्चिन्तयेत्कुण्डलीम् ॥ शारदा० २५।६५; देखिये वही, २५।७८ जहाँ पर ६ चक्रों के रंगों का उल्लेख है । श्लोक ६५ में मूल एवं स्वगृह का अर्थ है मूलाधारचक्र और भुजंगराजमहिषी का अर्थ है कुण्डलिनी । देखिये षट्चक्रनिरूपण, श्लोक ५३ जहाँ सहस्रारपद्म में कुण्डलिनी पर अमृत-धार बहने का उल्लेख है । और देखिये मन्त्रमहोदधि (४११६-२५), ज्ञानार्णवतन्त्र ( २४/४५-५४), महानिर्वाणतन्त्र (५।११३-११५) जहाँ चक्रों में दलों की संख्या, उनके रंगों, प्रत्येक के अक्षरों का उल्लेख है, और जहाँ चत्रों का पाँचों तत्त्वों एवं मन से तादात्म्य प्रदर्शित है । सौन्दर्यलहरी (श्लोक में भी आया है : 'महीं मूलाधारे... सहस्रारे पद्म सह रहसि पत्या विरहसे।' इसमें भी ६ चक्रों को ५ तत्वों एवं मन के समानां कहा गया है। पंडित गोपीनाथ कविराज ने 'सरस्वतीभवन स्टडीज' (जिल्द २, पृ०८३-८२ ) में गोरक्षनाथ के मतानुसार चक्र पद्धति का उल्लेख किया है | रुद्रग्रामल(३६।६-१६८)ने कुण्डलिनी के १००८ नामों का उल्लेख किया है जिनमें प्रत्येक 'क' अक्षर से आरम्भित है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org