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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र 4वें अध्याय में गर्भाधान से लेकर विवाह तक के दस संस्कारों का तीन वर्षों के लिए उल्लेख है और ६ संस्कार (उपनयन को छोड़कर) शूद्रों के लिए व्यवस्थित हैं। इन सभी में धर्मसूत्रों एवं स्मृतियों की भाँति वैदिक मन्त्रों का विधान किया गया है। एक मनोरंजक वात यह है कि यहाँ शव विवाह का उल्लेख है। शैव विवाह के दो प्रकार हैं, एक में चक्र के नियमों के अनुसार विवाह होता है और दूसरे में जीवन भर का विवाह होता है। शैव विवाह में वर्ण एवं अवस्था की बात नहीं उठती; और यदि किसी के पास ब्राह्म विवाह वाली पत्नी से उत्पन्न पुत्र हों और शैव विवाह से भी पुत्र हों तो पहले वाले ही उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं और दूसरे वाले केवल भोजन-वस्त्र के अधिकारी होते हैं (६।२६१-२६४) । महानिर्वाणतन्त्र के अध्याय १०, ११ एवं १२ में श्राद्धों, प्रायश्चित्तों एवं व्यवहार (कानून) की चर्चा है।
अब हम ११ वीं शती के तन्त्र-ग्रन्थ शारदातिलक का उल्लेख करेंगे। इसमें २५ पटल एवं ४५०० श्लोक हैं। इसके आरम्भ में कुछ दुर्बोध एवं आच्छन्न दर्शन है। इसमें आया है कि शिव निर्गुण एवं सगुण दोनों हैं, जिनमें प्रथम प्रकृति से भिन्न और दूसरा प्रकृति से सम्बन्धित है। इसके उपरान्त इसमें सृष्टि के विकास एवं अभिव्यक्ति का निदर्शन है। सगुण परमेश्वर से, जो 'सच्चिदानन्दविभव' कहा जाता है, शक्ति का उद्भव होता है ३८ ; शक्ति से नाद (पर) की उत्पत्ति होती है, नाद से बिन्दु (पर) का उद्भव होता है, बिन्दु तीन भागों में विभक्त है यथा--बिन्दु (अपर), नाद (अपर) एवं बीज; प्रथम का शिव से तादात्म्य है, बीज शक्ति है और नाद दोनों अर्थात् शिव एवं शक्ति का सम्मिलन है। शक्ति लोकों की सृष्टि करती है, वह शब्द-ब्रह्म है (११५६) और पराशक्ति (१।५२) एवं परदेवता (११५७) कही जाती है । वह आधारचक्र३९ में बिजली के समान चमकती है।
३८. शारदातिलक के विद्वान् टीकाकार राघवभट्ट ने, जिन्होंने अपनी टीका बनारस (आधुनिक वाराणसी) में विक्रम संवत् १५५० (१४६४ ई०) में लिखी, व्याख्या की है कि सांख्य पद्धति से शक्ति को प्रकृति वेदान्त में माया एवं शिवतन्त्रों में शक्ति कहा गया है।
३६. देखिये षट्चक्रनिरूपण (तान्त्रिक टेक्ट्स, जिल्द २, आर्थर एवालोन द्वारा सम्पादित) श्लोक ४४६, दक्षिणामूर्तिसंहिता (७।११-१६) जहाँ चक्रों का उल्लेख है । और देखिये 'सर्पेण्ट पावर' (ए० एवालोन द्वारा सम्पादित, १६५३)जिसमें षट्चक्र निरूपण का अंग्रेजी अनुवाद है, जिसमें प्लेट १ में ६ चक्रों की स्थितियाँ प्रदर्शित हैं, वे पद्य भी कहे जाते हैं। प्लेट सं० २ से ७ तक (पृ० ३५६, ३६५, ३७०, ३८२, ३६२, ४१४) मूलाधार से आज्ञा के चक्रों को उनके रंगों, दलों, अक्षरों एवं देवताओं की संख्या, आदि के साथ प्रदर्शित करते है हैं जो योगियों द्वारा प्रयोग में लाये जाते हैं । पृष्ठ ४३० पर आठवाँ प्लेट 'सहस्रार' प्रदर्शित करता है। देखिये सी० डब्ल्यू० लेडबीटर का ग्रन्थ 'दि चक्रज' (आधार, १६२७) जिसमें लेखक का ऐसा कहना है कि ये चक्र वैसे ही हैं जैसा कि वे देखने वाले को दीख पड़ते हैं और पृष्ठ ५६ में लेखक ने कमल के दलों के रंगों की सूची प्रदर्शित को है जिसे लेडबीटर एवं उनके मित्रों ने निरीक्षित कर रखा है और जो षटचक्रनिरूपण, शिवसंहिता एवं गरुडपुराण में उल्लिखित है । रुद्रयामल (१७ वाँ पटल , श्लोक १०) ने कुण्डली का उल्लेख 'अथर्ववेदचक्रस्था कुण्डली परदेवता' के समान किया है । श्लोक २१-२४ में आया है कि कुण्डलिनी मूलाधार चक्र को पार करती हुई मस्तक में पहुँचती है जहाँ सहस्रदल होते हैं और जब शिव से एकाकार हो जाता है तो साधक वहाँ अमृत पान करता है। रुद्रयामल (२७।५८-७०) ने छह चक्रों, दलों के साथ सहस्रार और प्रत्येक के अक्षरों का वर्णन विस्तार के साथ किया है । यहाँ पर एक सख्त सावधानी अवश्य दी जानी चाहिए जिससे कि कोई केवल पुस्तकों को पढ़कर
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