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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास होता है (५।२०६-२१०) । मुद्रा के लिए 'तद्विष्णो परमं०' एवं 'तद्विप्रासो०' (ऋ० १।२२।२०-२१) का प्रयोग होता है और वह देवी को अर्पित होती है। महानिर्वाणतन्त्र (१८ वीं शती) का प्रणयन तब हुआ था जब शक्तिवाद स होता था और उसकी घोर निन्दा की जाती थी और तभी वह मर्यादा के भीतर है। इसमें आया है कि कुलीन स्त्रियों को मद्य की केवल मद्य लेनी चाहिए न कि पीना चाहिए, गृहस्थ साधक को केवल पाँच पात्र मद्य ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अधिक पीने से कुलीन लोगों की सिद्धि की हानि होती है और उतना ही पीना चाहिए कि आँखें घूमने न लगें और मन अस्थिर न हो जाय । मैथुन के विषय में लिखा हुआ है कि साधक को केवल उसी नारी तक अपने को सीमित रखना चाहिए जिसका उसने शक्ति के रूप में वरण कर लिया है (६।१४), यदि उसकी पत्नी जीवित है तो उसे किसी अन्य का स्पर्श गन्दी भावना से नहीं करना चाहिए, नहीं तो वह नरक में पड़ेगा। तान्त्रिक आचारों के साथ-साथ पृथक् सम्मान की भावना से उत्प्रेरित हो कर महानिर्वाणतन्त्र ने आठवें अध्याय में वर्णाश्रमधर्मों, राजा के कर्तव्यों, सामान्य भत्यों के कर्तव्यों के विषय में भी लिखा है और व्यवस्था दी है३६ कि सभी वर्गों को अपने वर्ण के भीतर विवाह एवं भोजन करना चाहिए, किन्तु भैरवीचक्र एवं तत्त्वचक्र के सम्पादन में ऐसा नहीं है (८1१५०), क्योंकि उस समय सभी वर्गों के लोग उत्तम ब्राह्मणों के समान हैं और जाति-पंक्ति का भेदभाव एवं उच्छिष्ट (अर्थात् जूठा भोजन) आदि का अलगाव नहीं रहता। इसमें ऐसी व्यवस्था है कि जब तक साधक ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त न कर ले उसे तत्त्वचक्र के सम्पादन में संलग्न नहीं होना चाहिए। उस चक्र में तत्त्वों (मद्य, मांस आदि) का संग्रह करके देवी के समक्ष रखना चाहिए, ऋ० (४१४०।५) का 'हंसः' मन्त्र पर पढ़ा जाना चाहिए, और तत्त्वों का परमात्मा के समक्ष समर्पण 'ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:०' (भगवद्गीता ४।२४ =महानिर्वाण० ८।२१४ ) के साथ होना चाहिए और सभी साधकों को खाने-पीने में संलग्न होना चाहिए। ३४. अलिपानं कुलस्त्रीणां गन्धस्वीकारलक्षम् । साधकानां गृहस्थानां पञ्चपात्रं प्रकीर्तितम् । अतिपानाकुलीनानां सिद्धिहानि प्रजायते । यावन्ने चालयेद दृष्टि यावन्न चालयेन्मनः । तावत्पानं प्रकुर्वीत पशुपानमतः परम् ।। महानिर्वाण० (६।१६४)। पात्र सोना या चाँदी या शीशा या नारियल का हो सकता है किन्तु उसमें पांच तोलकों (तोलों) से न अधिक और न तीन तोलकों से कम अटना चाहिये : पानपात्रं अकुर्वीत न पञ्चतोलकाधिकम्। तोलकत्रितयान्नयन स्वार्ण राजतमेव च । अथवा काचजनितं नारिकेलोद्भवं च वा। महानिर्वाण ० (६-१८७-१८८) । मिलाइये कौलावलीनिर्णय (८।५५-५६) । ३५. स्थितेषु स्वीयदारेषु स्त्रियमन्यां न संस्पृशेत् । दुष्टेन् चेतसा विद्वानन्यथा नारको भवेत । महानिर्वाण तन्त्र (८।४०)। ३६. संप्राप्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजोत्तमाः । निवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णाः पृथक् पृथक् ॥ नामजातिविचारोस्ति नोच्छिष्टादिविवेचनम् । चक्रमध्ये गता वीरा मम रूपा नाराख्यया ॥ चक्राद्विनिसृता सर्वे रचस्ववर्णाश्रमोदितान् । लोकयात्राप्रसिद्धयर्थ कुर्युः कर्म पृथक् पृथक् ॥ महानिर्वाण (८।१७६-१८०, १६७) प्रवृत्ते भैरवीचक्रे... पृथक्' कौलावलीनिर्णय (८।४८-४६) में आया है । भैरवीचक्र एवं तत्त्वचक्र क्रम से महानिर्वाण० के (८।१५४१७६) में एवं (८।२०८-२१६) में आये हैं। ' ३७. ततो ब्राह्मण मनुना समर्प्य परमात्मने । ब्रह्मज्ञैः साधकः सार्धं विदध्यात्पानभोजनम् ॥ महानिर्वाण. (८।२१६) 'मनु' अधिकतर 'मन्त्र' के 'अर्थ' में प्रयुक्त हुआ है, देखिये कुलार्णव (१२।१८), वृद्धहारीतस्मृति (६।१६१, १६३) 'मन्त्र' एवं 'मनु' दोनों एक ही धातु 'मन्' (सोचना-विचारना) से निकले हैं। ब्राह्म-मनु है 'ओं सच्चिदेकं ब्रह्म। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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