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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र की उपयोगिता कुछ भी नहीं रह जाती, तब भी उसने ४।३४-३७ में महत्वपूर्ण धारणा उपस्थित की है कि परमेश्वर एक है और उसे सत् चित् एवं आनन्द कहना चाहिए, वह अद्वितीय है, गुणातीत है और उसका परिज्ञान वेदान्त वचनों से ही प्राप्त हो सकता है। इसमें पुन: आया है कि सर्वोत्तम मन्त्र है--'ओम् सच्चिदेकं 'ब्रह्म' (३।१४)। जो परम ब्रह्म की उपासना करता है उसे अन्य साधना की आवश्यकता नहीं है, इस मन्त्र पर आरूढ़ होकर व्यक्ति ब्रह्म हो जाता है। किन्तु चौथे अध्याय में महानिर्वाण तन्त्र यह कहकर आरम्भ करता है कि दुर्गा परमात्मा की परम प्रकृति है, उसके अनेक नाम हैं । यथा--काली, भुवनेश्वरी, बगला, भैरवी, छिन्नमस्तका; वह सरस्वती, लक्ष्मी एवं शक्ति है, वह अपने भक्तों की कामना पूर्ति तथा राक्षसों के नाश के लिए विभिन्न रूप धारण करती है। कलियुग में बिना कुलाचारों के अनुसरण किये पूर्णता नहीं प्राप्त की जा सकती, क्योंकि कुल के आचारों (व्यवहारों) से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है और ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त होता है। इसके उपरान्त देवी की महान् स्तुति की गयी है (४।१०), उसे आदि परम शक्ति (आद्यांपरमा शवित) कहा गया है और उससे सभी देव (यहाँ तक कि शिव भी) अपनी शक्तियाँ ग्रहण करते हैं (क्योंकि वह परम शक्ति है)। इस तन्त्र में एक विलक्षण उक्ति भी दी हुई हैसत्य, त्रेता एवं द्वापर युगों में मद्यसेवन चलता था, कलियुग में भी वैसा ही करना चाहिए, किन्तु कुल के आचार के साथ । जो व्यक्ति सत्यवादी योगी को कुल के मार्ग (ढंग) से शोधित पंच तत्त्वों (मद्य, मांस, आदि) अर्पित करता है वह कलि से बाँधा नहीं जाता, अर्थात् कलियुग से उसे कष्ट नहीं मिलता२। इसके उपरान्त दस अक्षरों वाला मन्त्र उद्घोषित हुआ है-- ह्रीं श्रीं क्री परमेश्वरी स्वाहा'३३, जिसके केवल श्रवण मात्र से व्यक्ति जीवन्म क्त हो जाता है। इसके उपरान्त रहस्यपूर्ण बीजाक्षरों के विभिन्न मिलापों से तथा परमेश्वरी एवं कालिका के साथ संयोजन से १२ मन्त्र उपस्थित किये गये हैं (५।१८)। किन्तु इन मन्त्रों से तब तक सिद्धि नहीं प्राप्त हो पाती जब तक कुलाचार का ढंग न अपनाया जाय (अर्थात् मद्य, मांस आदि पंच तत्त्वों का प्रयोग परमावश्यक है। इसके उपरान्त एक गायत्री मन्त्र कहा गया है (५।६२-६३) 'आद्याय विद्महे परमेश्वर्यै धीमहि तन्नः काली प्रचोदयात जिसे प्रतिदिन तीन बार कहना होता था। प्रकृति, महत्, अहंकार आदि सांख्य तत्त्वों को शक्ति-पूजा में समन्वित कर दिया गया है और 'हंस: शुचिषद्' (ऋ० ४।४०।५) नामक वैदिक मन्त्र को तान्त्रिक बीज 'ह्रीं' (५॥१९७) के साथ रखा गया है ।
मांस के पवित्रीकरण के लिए यह तन्त्र निर्देश करता है (५।२०६-२०८) और वहाँ ऋ० (१।२२।२०) के 'तद्विष्णोः परमं पदम्' का प्रयोग होता है। मत्स्य के पवित्रीकरण में ऋ० (८1५६।१२) के 'त्र्यम्बकम्' का प्रयोग
३२. सत्यत्रेताद्वापरेषु, यथा मद्यादिसेवनम् । कलावपि तथा कुर्यात् कुलवानुसारतः॥... कुलमार्गेण तत्त्वानि शोधितानि च योगिने । ये दधुः सत्यवचसे न हि तान् बाधते कलिः । महानिर्वाण तन्त्र ४५६ एवं ६०।।
३३. तन्त्र ग्रन्थों में मन्त्रों के बीजों के अक्षर घुमा-फिरा कर रहस्यवादी ढंग से रखे हुए हैं। 'ह्रीं' के प्राथमिक बीज के विषय में एक उदाहरण यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। प्राणेशस्तै जसारूढ़ो भेरुण्डा व्योमबिन्दुमान् । (महानिर्वाण ५॥१०); यहाँ पर 'ह' प्राणेश है, 'र' तेजस है, 'ई' भेरुण्डा है, अनुस्वार व्योमबिन्दु है और इस प्रकार बीज 'हीं प्राप्त होता है। इसी प्रकार नित्याषोडशिका० (१।१६२-६४) में ह्रीं एवं क्रों' की व्याख्या हुई है। ह्रीं एवं श्री क्रम से माया (या भुवनेश्वरी) एवं लक्ष्मी के बीज हैं । देखिये मातृकानिघण्टु (तान्त्रिक टेक्ट्स, जिल्द १, ५-२२, जहाँ २६-३४ पृष्ठों में बीजनिघण्ट है, ३५-४५ पृष्ठों में मातृकानिघण्टु है, अर्थात् 'ओम्' एवं 'अ' से लेकर 'क्ष' के अक्षरों के लिए )। प्रत्येक बीज मन्त्र में अनुस्वार बिन्दु अवश्य रहेगा, यथा ह्री, श्री, क्री आदि ।
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