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________________ २० धर्मशास्त्र का इतिहास का सेवन करता है वह भयंकर नरक में गिरता है। जो शस्त्रानुमोदित नियमों के विरोध में जाकर मनोनुकूल कर्म करता है वह सिद्धि नहीं प्राप्त करता और न स्वर्ग पाता और न परम लक्ष्य (मोक्ष) का अधिकारी होता है । साधक को मद्य का सेवन उतना ही करना चाहिए कि उसकी आँखें नाचने न लगें और उसका मन अस्थिर न हो जाये; इससे अधिक पीना पशुवत् व्यवहार है।' पारानन्दसूत्र (पृ० ७०-७१) ने तान्त्रिकों के उत्सव की विधि का भी वर्णन किया है। मन्त्र यह है “ईश्वरात्मन्, तव दासोहम्”, जो किसी चाण्डाल को भी दिया जा सकता है या चाण्डाल से प्राप्त भी किया जा सकता है। आगे भी ऐसी व्यवस्था है कि वाम मार्ग के अनुयायीगण सर्वोच्च तीन मकारों के विषय में निम्नोक्त मन्त्रों का प्रयोग कर सकते हैं-'मैं यह पवित्र अमृत ले रहा हूँ, जो संसार के लिए औषध है, जो एक ऐसा साधन है जिससे वह पाश कटता है जिससे पशु (मनुष्य में पाया जाने वाला भाव) बँधा हुआ है और जो भैरव द्वारा घोषित हैं' (ऐसा मद्य लेते समय कहा जाता है); 'मैं इस मुद्रा को ग्रहण कर रहा हूँ, जो परमात्मा की उच्छिष्ट है (अर्थात् जो सर्वप्रथम परमात्मा को अर्पित हुई थी), जो हृदय की पीड़ाओं को नष्ट करती है, जो आनन्द उत्पन्न करती है, और जो अन्य भोज्य पदार्थों से विवृद्ध होती है' (ऐसा मुद्रा के समय कहा जाता है); 'मैं इस दिव्य नवयुवती को, जिसने मद्य पी लिया है, ग्रहण करता हूँ, जो हृदय को सदा आनन्दित करती है और जो मेरी साधना को पूर्ण करती है (यह तब कहा जाता है जबकि लायी गयी कई नारियों में एक को ग्रहण किया जाता है)। यहाँ पर 'मुद्रा' का अर्थ 'हाथ एवं अँगुलियों की मुद्राएँ' नहीं है यहाँ वह अर्थ है जिसका उल्लेख आगे किया जायेगा । हिन्दू तन्त्र ग्रन्थ दो स्वरूप प्रकट करते हैं-एक है दार्शनिक एवं आध्यात्मिक, और दूसरा है प्रचलित, व्यावहारिक तथा अधिक या कम ऐन्द्रजालिक, जो मन्त्रों, मुद्राओं, मण्डलों, न्यासों, चक्रों एवं यन्त्रों पर जो मात्र भौतिक साधन हैं जिनके द्वारा ध्यान लगा कर परम शक्ति से तादात्म्य स्थापित किया जाता है और जो भक्त को अलौकिक शक्तियाँ प्रदान करते हैं । इसका निदर्शन दो आदर्शभूत तन्त्रों, यथा शारदातिलक एवं महानिर्वाणतन्त्र से किया जा सकता है। यद्यपि महानिर्वाणतन्त्र ने पंच मकारों को उपासना के साधन के रूप में ग्रहण किया है, और उसने यह भी कहा है कि यदि महान तन्त्र को लोग समझ लें तो वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों ३१. स्वेच्छाऋतुमती शक्तिः साक्षाद् ब्रह्म न संशयः । तस्मात्तां पूजयेद्भक्त्या वस्त्रालंकारभोजनरिति ॥ स्त्रियो देवाः स्त्रियः प्राणा स्त्रिय एवं हिभषणम् । स्त्रीणां निन्दा न कर्तव्या न च ताः क्रोधयेदपि ॥ इति । देवान गुरुन्समभ्यर्च्य वेदतन्त्रोक्तवर्त्मना। देवंस्मरन् पिबन् मद्यं वेश्यांगच्छन्न दोषभाक् ॥ इति। सेवेदात्मसुखार्थ यो मद्यादिकमशास्त्रतः । स याति नरकं घोरं नात्र कार्या विचारणा ॥ यः शास्त्रविधि...परां गतिम् ॥ इति । यावन्न चलते दृष्टिर्यावन्न चलते मनः । तावन्पानं प्रकुर्वीत पशुपानमितः परम् ॥ इति । जीवन्मुक्तः पिबेदेवमन्यथा पतितो भवेत ॥ इति । परानन्द (पृ० १६-१७, सूत्र ६४, ६५, ७४-७६, ८०-८१) बहुत-से तन्त्रों में स्त्रियों की प्रशंसा में अत्युक्ति की गयी है, यथा-- 'शक्तिसंगमतन्त्र, कालीखण्ड (३॥१४२-१४४) एवं ताराखण्ड (१३।४३-५०); कौलावलीनिर्णय (१०८)। 'स्त्रियो ...भूषणम्' की अर्धाली शक्तिसंगमतन्त्र, ताराखण्ड (२३।१०) में आया है । 'यः शास्त्र...' वाला श्लोक भगवद्गीता (१६।२३) है । 'यावन्न...परम्' को मिलाइये, कुलार्णवतन्त्र (७६७-६८) । कुलार्णव में आया है कि प्रयत्क नारी महान् माता के कुल में जन्म लेती है, अतः नारी को एक पुष्प से भी कभी नहीं पीटना चाहिए। भले ही उसने सैकड़ों दुष्कर्म कर डाले हों, नारियों के अपराधों एवं दोषों को परवाह नहीं करनी चाहिए, उनके सद्गुणों को ही प्रसिद्धि देनी चाहिए (१११६४-६५) और देखिये कौलावलीनिर्णय (१०।६६-६६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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