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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
चाहिए, यदि उसका रहस्य अन्य लोगों को ज्ञात हो जाय तो नरक प्राप्त होता है । देखिए परशुरामकल्पसूत्र (१२) एवं शक्तिसंगमतन्त्र (तारा० ३६।२४-२५) । दीक्षा एवं मन्त्र की प्राप्ति के उपरान गुरु के आदेशों का पालन तब तक करते जाना चाहिए जब तक उसे इष्ट का दर्शन न हो जाय । गुरु सभी अन्य लोगों से श्रेष्ठ है, मन्त्र गुरु से श्रेष्ठ है, देवता मन्त्र से श्रेष्ठ है तथा परमात्मा देवता से श्रेष्ठ है। सिद्धियों की प्राप्ति के लिए शिष्य द्वारा सभी प्रकार से गुरु की सेवा की जानी चाहिए । भोग, स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए केवल भक्ति ही एक मार्ग है, ऐसा श्रुति का कथन है (देखिए पारानन्द०, पु०६-७, सूत्र ३५, ३८ एवं ५६)। 'जीवन्मुक्ति' का अर्थ है अपने उपास्य के दर्शन की प्राप्ति (स्वोपास्य दर्शनं जीवन्मुक्तिः ) एवं 'वह, जो जीवित रहते हुए मुक्त है, अपने कर्मों से लिप्त नहीं होता, चाहे वे कर्म पुण्य वाले हों, अथवा पाप वाले' । ये सिद्धान्त कुछ उपनिषदों में कहे गये उन शब्दों से मिलते हैं जो ब्रह्मज्ञानी के लिए प्रयुक्त हैं। जो ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह पुण्य एवं पाप से रहित हो जाता है और शरीर को छोड़कर ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है। वह लौट कर नहीं आता है, अर्थात् वह आवागमन से मुक्त हो जाता है। इस स्थिति के लिए प्रयास करना चाहिए।
न प्राप्त हो गया है उसे भक्त हो जाना चाहिए। जो आर्त है, जिज्ञासु है, अर्थार्थी (किसी कामना वाला) है तथा ज्ञानी है, वह भद्र है, किन्तु जो परमात्मा को जानता है और भक्त हो जाता है वह परमात्मा के लोक को पाता है, जैसा कि वैदिक शब्दों में आया है--'ब्रह्मज्ञानी परम को प्राप्त होता है।
इस उच्च दर्शन की पृष्ठभूमि में पारानन्दसूत्र ने स्वच्छन्द रूप से व्यवस्था. दी है कि गुरु को पुष्पाञ्जलि से पूजन करके तथा अग्नि में कुछ भोज्यान्न डालकर मकारों को एकत्र करना चाहिए, पुन: देवता के पूजास्थल में आना चाहिए और अग्नि में हवि डालनी चाहिए तथा नवशिष्य को मद्य पीने के लिए पात्र, मद्रा, व्यञ्जनों के साथ भोजन एवं एक वेश्या समर्पित करनी चाहिए। इसके उपरान्त नवशिष्य जब तीन मकारों (मद्य, मुद्रा एवं मैथुन) को ग्रहण कर चुके तो उसे कौलधर्म में प्रशिक्षित करना चाहिए। देखिए पारानन्द० (पृ० १५-१६, सूत्र ५६-६३)। इसके उपरान्त पारानन्दसूत्र नवशिष्य को सिखाये जाने वाले कौलधर्मों को दो पृष्ठों (१६-१७) में उल्लिखित करता है, जहाँ की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं--"नवयुवती वेश्या (स्वेच्छा ऋतुमती) स्वयं शक्ति का अवतार है, ब्रह्म है; स्त्रियाँ देवता हैं, प्राण हैं, और (विश्व के) अलंकार हैं; स्त्रियों की निन्दा नहीं करनी चाहिए और न उन पर क्रोध करना चाहिए। इस प्रकार वेदो एवं तन्त्रों में दिये हए नि देवों एवं गुरु की पूजा करने के उपरान्त जब व्यक्ति देवों को स्मरण करता हुआ मद्य पीता है या वेश्या के साथ मैथुन करता है तो वह पाप कर्म नहीं करता। जो केवल अपने को आनन्द देने के लिए मद्य पीता है तथा अन्य मकार
३०. स्वोपास्यदर्शनं जीवन्मुक्तिः जीवन्मुक्तो न कर्मभिलिप्यते पुण्यः पापर्वा । न स पुनरावर्तते । न स भूयः संसारसम्पद्यते । तस्मात्तदर्शने यतितव्यम् । ज्ञानी भक्तो भवेत् । आर्तजिज्ञास्वर्थाथिज्ञानिन उदारास्तत्रेशस्य ज्ञानी भक्त एवं परमात्मलोकं प्राप्नोति ब्रह्मविदाप्नोति परमिति शब्दात् । पारानन्द (पृ. ६, सूत्र ३.८) 'नच पुनरावर्तते' छा० उप० (८।१५) के अन्त में आया है तथा 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' ते० उप० (ब्रह्मानन्दवल्ली) के प्रारम्भ में ही आया है। 'आत...ज्ञानी भक्त एवं' गीता (७.१६-१७) से उद्धत है। 'चतुर्विधा भजन्ते. . .उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।" मिलाइये मुण्डकोपनिषद् (३।११३) : 'तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरंजनः परमंसाम्यमुपैति)' छा० उप० (८।१३), महानिर्वाणतन्त्र (४१२२) : 'ब्रह्मज्ञाने समुत्पन्ने मेध्यामेध्य न विद्यते' एवं ७६४ : 'ब्रह्म...ने कृत्याकृत्यं न विद्यते ॥'
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