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धर्मशास्त्र का इतिहास
करते हैं वे विज्ञ कौलिक कहे जाते हैं २८ । गुह्यसमाज ( प्रथम पटल, पृ० ६ ), शक्ति संगम ( भूमिका, पृ० ८ ), ताराखंड में बहुत-सी परिभाषाएँ दी हुई हैं । किन्तु उसी तन्त्र में द्वघर्थवाक्य आये हैं और उद्घोषणा हुई है - "शक्ति कुल के नाम से विख्यात है, उसकी पूजा आदि वर्णित है; उसे कुलाचार कहना चाहिए जो देवों के लिए भी दुर्लभ है। केवल मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन से की गयी पूजा को ही कुलाचार कहा जाता है" । पारानन्दसूत्र में आया है कि परमात्मा एक है, ईश्वर सात हैं, यथा--ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, शक्ति एवं भैरव जीव असंख्य हैं; मार्ग तीन हैं, यथा- दक्षिण, वाम एवं उत्तर, जिनमें प्रत्येक अपने पूर्व वाले से उत्तम है, दक्षिण मार्ग वह है जो वेद, स्मृतियों एवं पुराणों में घोषित है; वाम मार्ग वेदों एवं आगमों द्वारा घोषित है, और तीसरा मार्ग (उत्तर) वह होता है, जिसे वेद के वचन एवं गुरु घोषित करते हैं; गुरुवाक्य, अपने उस गुरु का होता है, जो स्वयं जीवनमुक्त होता है और मन्त्रों की शिक्षा देता है। सूत्र में आगे आया है कि वामाचार दो प्रकार का होता है, यथा मध्यम एवं उत्तम उत्तम वह है जिसका सम्बन्ध मद्य, मैथुन एवं मुद्राओं से है, और मध्यम वह जिसमें पाँचों, अर्थात् मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन पाये जाते हैं। २९ 1 यह द्रष्टव्य है कि स्वयं तन्त्रों ने पूजा में पंचमकारों के प्रयोग को वामाचार कहा है, न कि उनके कट्टर योग पक्षपातियों ने, जैसा कि हीनरिच ज़िम्मर महोदय ने कहा है (दि आर्ट आव इण्डियन एशिया, जिल्द १, पृष्ठ १३० ) । पारानन्दसूत्र ( पृ० ५, सूत्र १२ - १६ ) का कथन है कि शिष्य को किसी 'गुणवान् गुरु से दीक्षा लेनी पड़ती है, जो उसे मन्त्र सिखाता है, जो अपने मुख में पानी भरकर शिष्य के मुख में डालता है और जिसे शिष्य पीता हुआ मन्त्र को स्वीकार करता । यह विधि तब प्रयोग में लायी जाती है जब कि गुरु ब्राह्मण होता है । किन्तु गुरु क्षत्रिय होता है तो वह कान में मन्त्र सुनाता है । तन्त्रराजतन्त्र में आया है कि गुरु को १, २, ३, ४ या ५ वर्षों तक क्रम से चारों वर्णों एवं मिश्रित जाति वालों के गुणों एवं भक्ति की परीक्षा लेनी चाहिए और तब मन्त्र देना चाहिए, नहीं तो गुरु एवं शिष्य दोनों कष्ट में पड़ेंगे (तान्त्रिक टेक्ट्स, जिल्द ८, २०३७-३८ ) । अधिकांश तन्त्रों का कथन है कि गुरु एवं पंचमकारों द्वारा की गयी पूजा द्वारा प्राप्त ज्ञान गुप्त रखना
२८. श्रीकाल्युपसका ये च तत्कुलं परिकीर्तितम् । तेषां समूहो देवेशि कुलं संकीर्तितं मया । शक्तिसंगम, कालीखण्ड (३३२); मद्यं मासं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च । ऐभिरेव कृता पूजा कुलाचारः प्रकीर्तितः ॥ शक्ति संगम, ताराखण्ड, ३६ वाँ पटल, १८-२० श्लोक; कुलं गोत्रं समाख्यात तच्च शक्तिशिवोद्भवम् । येन मोक्ष इति ज्ञानं कौfor: सोभिधीयते ॥ अकुलं शिव इत्युक्तं कुलं शक्तिः प्रकीर्तिता । कुलाकुलानिसन्धानान्निपुणाः कौलिकाः प्रिये 1 कुलार्णव (१७।२६-२७) । पञ्चमकार शोधनविधि ( डकन कालेज पाण्डुलिपि सं० ६६४, १८६१-६५) में आया है " मद्य... मैथुनमेव च । भाग्यहीना (नैः ? ) न लभ्यन्ते मकाराः पञ्च दुर्लभा ।"
२६. एकः परमात्मा । ईश्वरा सप्त । असंख्या जीवाः । ब्रह्माविष्णुशिवसूर्य गणेशशक्तिभैरवाश्चेश्वराः । पारानन्दे मतेत्रो मार्गाः । दक्षिणः । वामः । उत्तरः । तथैव गाथामुदाहरन्ति । दक्षिणादुत्तम वामं वामादुत्तरमुत्तमम् । उत्तरादुत्तमं किचिन्नैव ब्रह्माण्डमण्डले । वामाचारो मुद्रामैथुनैर्युक्तो मध्यमः । पारानन्द सूत्र ( गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज पृ० १-३, १३) । मिलाइये कुलार्णवतन्त्र (२७-८) 'वैष्णवादुत्तमं शैवं शैवा द दक्षिणमुत्तमम् । दक्षिणादुत्तमं वामं वामात् सिद्धान्तमुत्तमम् । सिद्धान्तादुत्तमं कौलं कौलात्परतरं नहि ॥ ' वामाचार' शब्द सम्भवतः इसीलिये प्रयुक्त है कि इसमें वामा अर्थात् नारी महत्वपूर्ण योगदान देती है अथवा क्योंकि यह गुप्त रूप से (जो कि वाम गति कहा जायेगा ) प्रयोगित होता था । अतः इसे वामाचार कहा गया ।
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