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________________ ४०२ धर्मशास्त्र का इतिहास एवं सम्मिलनों से मिश्रित जातियों की उत्पत्ति हुई और आग विभिन्न वर्गों एवं जातियों के पुरुषों एवं नारियों के विवाहों एवं सम्मिलनों से विभिन्न जातियों एवं उपजातियों की उद्भूति हुई। इसी को वर्ण संकर या केवल संकर कहा गया और इसी के विषय में अर्जुन ने शंका प्रकट की (गीता ११४१-४२) और इसी के विरोध में भगवद्गीता (३।२४-२५) ने कड़ा आक्षेप प्रकट किया है। गौतम (धर्मसूत्र ८१३) ने कहा है कि (जातियों एवं उपजातियों की) समृद्धि, (वर्गों की) रक्षा एवं शुद्धता (असंकरता) राजा एवं विद्वान् ब्राह्मणों पर निर्भर रहती है। राजा सिरी पुलुमायी (एपि० इं०, जिल्द ८, पृ० ६०, लगभग १३० ई०) के नासिक लेख में राजा की प्रशंसा की गयी है कि उसने वर्णसंकरता को रोक दिया है। प्राचीन काल में भी वर्णसंकरता प्रकट हो गयी थी, वनपर्व (१८०।३१-३३) में युधिष्ठिर ने कहा है-- 'वर्गों के अस्तव्यस्त मिश्रण के कारण किसी व्यक्ति की जाति का पता चलाना कठिन हो गया है; सभी लोग सभी प्रकार की नारियों से सन्तान उत्पन्न करते हैं; अतः विज्ञ लोग चरित्र को ही प्रमुख एवं वांछित वस्तु मानते हैं।' वर्णों की मौलिक योजना स्वाभाविक थी और वह उस कार्य पर आधुत थी जिसे व्यक्ति सम्पूर्ण समाज के लिए करता था। यह जन्म पर आधृत नहीं थी। वैदिक काल में केवल वर्ग थे, आधुनिक अर्थ में जातियाँ नहीं। मौलिक वर्ण-व्यवस्था में उस समय के समाज के लिए एक ऐसी स्थापना थी जिसमें किसी प्रतिद्वन्द्विता-सम्बन्धी समानता की प्राप्ति का प्रयास नहीं था, प्रत्यत उसमें सभी दलों अथवा वर्गों की अभिरुचि अथवा स्वार्थ समान था। स्मतियों में भी, जब कि बहुत-सी जातियाँ उत्पन्न हो चुकी थीं, अधिकारों एवं सुविधाओं की अपेक्षा कर्तव्यों पर ही सबसे अधिक बल दिया जाता था, तथा उच्च नैतिक चरित्र एवं व्यक्ति के प्रयास का मूल्य अधिक माना जाता था। इसी से गीता (४।१३) में कहा गया है कि चार वर्णों की व्यवस्था गुणों (सत्त्व, रज एवं तम) एवं कर्मों के आधार पर की गयी है और पुनः (१८।४२-४४) आया है कि मन की शान्ति (निर्मलता), आत्म-संयम, तप, शुद्धता, धैर्य (सहनशीलता), आर्जव (सरलता अथवा ऋजुता),ज्ञान (आध्यात्मिक ज्ञान), सभी प्रकारों का ज्ञान, विश्वास (या ईश्वर में श्रद्धा)-- ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म (कर्तव्य) हैं ; वीरता, क्रोध (आवेश), शक्ति, स्थिरता, समर्थता, युद्ध से न भागना, दया एवं शासन--ये सब क्षत्रिय के कर्तव्य हैं; कृषि, पशपालन, व्यापार एवं वाणिज्य -ये सब वैश्य के स्वाभाविक कर्तव्य हैं; सेवा के रूप का कार्य शूद्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। गीता के इन शब्दों को हम आधुनिक सहस्रों जातियों एवं उपजातियों के समर्थन में प्रयुक्त नहीं कर सकते। यदि जन्म को ही प्रमख एवं एक मात्र आधार माना गया होता तो गीता के शब्द (४।१३) 'जाति-कर्म विभागशः' (या जन्म-कर्म) होते न कि 'गुणकर्म विभागशः'। यह द्रष्टव्य है कि ब्राह्मणों के लिए जो नौ कर्म रखे गये हैं उनमें कहीं भी जन्म पर बल नहीं दिया गया है। महाभारत के काल में कठोर जाति-व्यवस्था के विरोध में कोई बड़ी क्रान्ति या उपद्रव या आलोचना अवश्य हुई होगी। महाभारत में बहुधा वर्णों एवं जातियों की ओर संकेत किया गया है (देखिए वनपर्व अध्याय १८०, विराट पर्व ५०।४-७, उद्योगपर्व २३।२६, ४०।२५-२६, शान्तिपर्व १८८।१०-१४, अनुशासन पर्व अध्याय १४३) । कुछ वचन यहाँ उद्धृत किये जा रहे हैं । शान्तिपर्व (१८८।१०) में आया है-'वर्गों में कोई वास्तविक अन्तर्भेद नहीं है, (क्योंकि), सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म का है, क्योंकि यह आरम्भ में ब्रह्मा द्वारा सृष्ट हुआ था, और इसमें (मनुष्यों के) विभिन्न प्रकार के कर्मों के कारण वर्णों की व्यवस्था थी, शान्तिपर्व (१८६१४ एवं ८) में पुनः कहा गया है-'वह व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है जिसमें सत्यता, उदारता, विद्वेष का अभाव, क्रूरता का अभाव, लज्जा (बुरा कर्म करने पर नियन्त्रण), करुणा एवं तपस्वी का जीवन पाया जाये; यदि ये लक्षण किसी शूद्र में दिखाई पड़ जायं और किसी ब्राह्मण में उनका अभाव हो तो शूद्र शूद्र नहीं है (उसे शूद्र नहीं समझा जाना चाहिए) और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है। मिलाइए वनपर्व (२१६११४-१५), धम्मपद (३६३) । जिन दिनों वैष्णवों तथा अन्य लोगों में झगड़े चल रहे थे और वे अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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