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________________ हिन्दू संस्कृति एवं सभ्यता की मौलिक एवं मुख्य विशेषताएं ४०३ चरमावस्था को पहुंच गये थे तब भागवतपुराण (७।६।१०) में कहा गया है कि वह चाण्डाल जो विष्णु का भक्त है उस ब्राह्मण से उत्तम है जो विष्णु का भक्त नहीं है। चारों वर्गों में प्रत्येक के सदस्यों को जो कुछ विशिष्ट गुण प्राप्त होने चाहिए उनमें नैतिक गुणों को धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। मनु (१०।६३), याज्ञ० (११२२) गौतमधर्मसूत्र (८।२३-२५), मत्स्यपुराण ( ५२।८-१० ) ने सभी वर्गों के लिए आचारों एवं गुणों की व्यवस्था कर दी है, यथा--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच (शुद्धता), इन्द्रिय निग्रह । देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० श२२)। विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड-२, पृ०१०-११। ब्राह्मणों के समक्ष बड़े उच्च आदर्श रख दिये गये थे। उन्हें कर्तव्य के रूप में वेद एवं वेदांगों का अध्ययन करना पड़ता था, उन्हें यज्ञ-सम्पादन करना पड़ता था, दान देना पड़ता था और उनकी जीविका के उचित साधन केवल तीन थे-वेद एवं शास्त्रों की शिक्षा देना, यज्ञों में पौरोहित्य का कार्य करना एवं धार्मिक तथा अन्य दान ग्रहण करना । वेदाध्ययन कितना कठिन कार्य था, इसका परिज्ञान इसी से हो सकता है कि एक वेद का ज्ञाता तथा कमसे-कम एक वेद को सम्पूर्ण कण्ठस्थ कर लेने वाला ब्राह्मण बड़ा विद्वान् गिना जाता था। मान लीजिए कोई ब्राह्मण ऋग्वेद का विद्यार्थी है तो उसे ऋग्वेद के दस सहन से अधिक मन्त्रों, उसके पद-पाठ, क्रमपाठ, ब्राह्मण, (सामान्यतः ऐतरेय), छह वेदांगों (यथा--आश्वलायन का कल्प सूत्र, पाणिनि का व्याकरण जिसमें लगभग ४००० सूत्र हैं, निरुक्त जो १२ अध्यायों में है, छन्द, शिक्षा एवं ज्योतिष) को कण्ठस्थ करना पड़ता था। छह वेदांगों में प्रथम तीन बहुत लम्बे एवं गूढ (दुर्योध) ग्रन्थ हैं । बिना अर्थ समझे इतने लम्बे साहित्य को स्मरण रखना पड़ता था। इस शती के आरम्भ में इस प्रकार के लगभग सहस्रों ब्राह्मण थे, और आज भी इस प्रकार के सैकड़ों ब्राह्मण हैं। उन्हें बिना शल्क लिये वेद का अध्यापन करना पड़ता था (वेदाध्यापन करने पर शुल्क-ग्रहण पाप समझा जाता था और आज भी ऐसा ही है) । शिक्षा के अन्त में वे दिये जाने पर कुछ ग्रहण कर सकते थे। यज्ञों में पौरोहित्य कार्य से पर्याप्त दक्षिणा मिल जाती थी। किन्तु सभी ब्राह्मण पुरोहित नहीं होते थे, वे यदि चाहें तो हो सकते थे, किन्तु इसके लिए विद्वत्ता अनिवार्य थी। बहुत-से ब्राह्मण श्राद्ध-कर्म में पुरोहित होना स्वीकार नहीं करते (कम-से-कम मनुष्य की मृत्यु के उपरान्त तीन वर्षों तक)। पाणिनि (५।२७१) में 'ब्राह्मणक' (वह देश या प्रान्त जहाँ ब्राह्मण आयुधजीवी होते थे) की व्युत्पत्ति बतायी है और कौटिल्य (६२) ने भी ब्राह्मणों की सेना की चर्चा की है। ब्राह्मणों की आय का तीसरा स्रोत था योग्य सुपात्र एवं पापरहित व्यक्ति से धार्मिक दानों का ग्रहण । विपत्तियों में ब्राह्मण अन्य वृति सकते थे. किन्त इस विषय में भी बहत-से निषेध थे। ब्राह्मणों के समक्ष दरिद्रता का जीवन, सादा जीवन एवं उच्च विचार का आदर्श था, वे धन के लोभी नहीं थे। उन्हें अपने और आर्य समाज के मूल्य को बढ़ाने की अवश्यकता पर बल देना पड़ता था, वे प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, रक्षण, प्रसारण एवं वृद्धि में लगे रहते थे । यही उनके जीवन का प्रमुख आदर्श था। राजा, धनिक लोग, सामान्य जन भी विद्वान् ब्राह्मणों को भूमि-दान एवं गृह-दान किया करते थे और इस प्रकार दान-कर्म बड़ा पुण्यकारक माना जाता था। देखिए इस विषय में इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ११३ । ब्राह्मण लोग शतियों से चले आये हुए इतने समृद्ध एवं विशाल साहित्य के संरक्षक थे, उनसे ऐसी आशा की जाती थी कि वे नित-नव-नूतन बढ़ते हुए साहित्य की भी रक्षा करें और उसे सम्यक् ढंग से औरों में बाँटें तथा सम्पूर्ण साहित्य का प्रचार करें। यद्यपि सभी ब्राह्मण इतने बड़े आदर्श तक नहीं पहुंच पाते थे, किन्तु तब ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या इस महान कार्य में संलग्न थी। इन्हीं लोगों के कारण सम्पूर्ण ब्राह्मण-समाज को इतना बड़ा माहात्म्य प्राप्त हुआ। प्राचीन एवं मध्य काल में बहुत-से लोग अपने पूर्वजों की वृत्तियाँ करते थे। मनु (८४-८) ने राजा के पद की बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि राजा में आठ देवों (यथा-इन्द्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्र, कुबेर, यम एवं वायु) का अस्तित्व पाया जाता है और राजा नर रूप में महान् देवत्व का रूप है। राजा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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