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________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त एक विवेचन है, जो सम्भवतः इस प्रकार के अत्यन्त आरम्भिक पाप एवं प्रायश्चित्त-सम्बन्धी व्याख्या है। गौतम का कथन है कि पापों के शमन के लिए प्रायश्चित्तों के विषय में दो मत हैं, जिनमें एक यह है कि पापों के लिए प्रायश्चित्त नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जब तक उनके फलों को भोग नहीं लिया जाता, उनका नाश नहीं होता; और दूसरा मत यह है कि प्रायश्चित्त किया जाना चाहिए, क्योंकि इस विषय में वैदिक वचन उपलब्ध हैं, यथा'पुन:स्तोम नामक यज्ञ करने के पश्चात व्यक्ति सोम यज्ञ करने के योग्य हो सकता है (अर्थात वह सभी प्रकार के यज्ञ कर सकता है)', 'व्रात्यस्तोम करने के पश्चात व्यक्ति वैदिक यज्ञों के सम्पादन के योग्य हो जाता है', 'जो अश्वमेध करता है वह सभी पापों, यहाँ तक कि ब्रह्म हत्या को भी लाँघ जाता है ।२७ कुछ लोगों का ऐसा मत था कि केवल वे पाप प्रायश्चित्तों से दूर होते हैं जो अनजान में हो जाते हैं, किन्तु कुछ लोग ऐसा दृष्टिकोण रखते थे कि वे पाप भी प्रायश्चित्तों से शमित होते हैं जिन्हें जानबूझ कर किया जाता है, क्योंकि इस विषय में वैदिक संकेत प्राप्त होते हैं (मनु ११।४५) ।२८ इस विषय में हमने इस महाग्रन्थ के मूल) खण्ड ४ पृ० १-१७८ में विस्तार के साथ पढ़ लिया है। पापों के फलस्वरूप पुनर्जन्म पाने के विषय में पाठकों का ध्यान निम्नलिखित ग्रन्थों की ओर आकृष्ट किया जा रहा है-मनुस्मृति (१२॥५४-६६), याज्ञवल्क्य स्मृति (३।१३१, १३५-१३६, २०७-२१५), विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय ४४), अविस्मृति (४।५-१४, १७-४४), मार्कण्डेयपुराण (१५।१-४१), ब्रह्मपुराण (२१७।३७-११०), गरुडपुराण (प्रेतकाण्ड, २।६०-८८, जहाँ याज्ञ० ३।२०६-२१५ ज्यों-का-त्यों रख दिया गया है), मिताक्षरा ३।२१६), मदनपारिजात (पृ० ७०१-७०२), पराशरमाधवीय (खण्ड २, भाग २, पृ० २४६, २५६, २६३ २६६) । स्थानाभाव के कारण इस विषय में हम विस्तार से विवेचन नहीं उपस्थित करेंगे, केवल थोड़े-से उदाहरण प्रस्तुत किये जायेंगे। मनु (१२६५४-६६, जिनसे बहुत-सी बातों में याज्ञ० ३।२०६-२०८ की सहमति है) में आया है-- 'महापातकी लोग बहुत वर्षों तक भयंकर नरकों में रह कर निम्नलिखित जन्म प्राप्त करते हैं । ब्रह्महत्यारा कुत्ता, सूअर, गधा, ऊँट, कौआ (या बैल), बकरी, भेड़, हरिण, पक्षी, चाण्डाल एवं पुक्कस के जन्मा को पार करता है; सुरा पीने वाला ब्राह्मण कीटों, मकोड़ों, पतंगों, मल खाने वाले पक्षियों, मांसभक्षी पशुओं के विभिन्न जन्मों को पाता है। ब्राह्मण के सोने की चोरी करने वाला ब्राह्मण मकड़ों, सों, छिपकलिया, जलचरों, नाशक निशाचरों की योनियों में सहस्रों बार जन्म लेता है। गरु के पर्यक को अपवित्र करने वाला (गुरु-पत्नी के साथ संभोग करने वाला) घासों, गुल्मों, लताओं, मांसभक्षी पशुओं, फणिधरों तथा व्याघ्र ऐसे क्रूर पशुओं की योनियों में सैकड़ों बार जन्म लेता है । जो व्यक्ति लोगों को मारा-पीटा करते हैं वे कच्चा मांस खाने वालों की योनि में जन्म लेते हैं, जो व्यक्ति निषिद्ध भोजन करते हैं, वे कीट होते हैं; जो चोरी करते हैं, वे ऐसे जीव बनते हैं जो अपनी जाति के जीवों को खा डालते हैं, यथा मछली; जो लोग हीन जाति २७. तत्र प्रायश्चित्तं कुर्यान्न कुर्यादिति मीमांसन्ते । न कुर्यादित्याहुः । न हि कर्म क्षीयत इति । कुर्यादित्यपरम् । पुनः स्तोमेनेष्ट्वा पुनः सवनमायान्तीति विज्ञायते। वात्यस्तोमैश्चेष्ट्वा । तरति सर्व पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते । अग्निष्टुताऽभिशस्यमानं याजयेदिति च । गौ० ध० सू० (१६।३-१०)। देखिए वसिष्ठधर्मसूत्र (२२१३-७), ते० सं० (५।३।१२।२) एवं शतपथब्राह्मण (१२।३।१।१)। २८. अनभिसन्धिकृते प्रायश्चित्तमपराधे। अभिसन्धिकृतेप्येके । वसिष्ठ (२०११-२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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