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धर्मशास्त्र का इतिहास की नारियों से संभोग करते हैं, वे प्रेत होते हैं, जो व्यक्ति बहिष्कृत लोगों के साथ कुछ विशिष्ट अवधि तक रह लेता है, जो दूसरों की पत्नियों के साथ संभोग करता है, जो ब्राह्मण की सम्पत्ति (सोना के अतिरिक्त) को छीन लेता है, वह ब्रह्मराक्षस होता है। जो व्यक्ति लोभवश रत्नों, मोतियों, मूंगों या किसी अन्य प्रकार के बहुमूल्य पत्थरों को चुराता है, वह स्वर्णकारों के बीच जन्मता है; अन्न चुराने पर ब्राह्मण चूहा होता है, कांसा चुराने पर व्यक्ति हंस पक्षी होता है, दूसरे को जल से वंचित करने पर व्यक्ति प्लव नामक पक्षी होता है, मधु चुराने पर डंक मारने वाला जीव होता है, मीठा रस (ईख आदि का) चुराने पर कुत्ता होता है । मांस चुराने पर चील होता है, तेल चुराने पर तैलपक (तलचट्टा) कीड़ा, नमक चुराने पर झिल्ली जीव तथा दही चुराने पर बलाका (बगला) पक्षी होता है; रेशम, सन-वस्त्र, कपास-वस्त्र चुराने पर क्रम से तीतर, मेढक एवं क्रौंच पक्षी का जन्म मिलता है; गौ चुराने पर गोधा, चोटा चुराने पर वाग्गुद (चमगादड़? ) पक्षी, सुगंध चुराने पर गंधम्षक (छ दर), पत्तियों वाले शाक चुराने पर मोर, भांति-भाँति के पक्वान्न चुराने पर शल्य (साही) तथा बिना पका भोजन चुराने पर शल्य (या झाड़ी में रहने वाला जीव विशेष) का जन्म मिलता है । अग्नि चुराने पर बगला (बक), बर्तनों के चुराने पर हाड़ा, रंगीन वस्त्र चुराने पर चक्रवाक पक्षी, हिरण या हाथी चुराने पर भेड़िया, घोड़ा चुराने पर बाघ, फलों एवं कन्द-मूलों के चुराने पर बन्दर, नारी चुराने पर भालू , पीने वाला पानी चुराने पर चातक, सवारी (यान) चुराने पर ऊँट, पालतू पशु चुराने पर बकरा का जन्म प्राप्त होता है। जो व्यक्ति किसी अन्य की कोई सम्पत्ति बलपूर्वक छीन लेता है या जो उस यज्ञिय सामग्री को, जिसका कोई अंश अभी यज्ञ में नहीं लगा है, खा लेता है तो वह निम्न श्रेणी का पशु होता है; जो नारियाँ उपर्युक्त प्रकार की चोरी करती हैं, वे भी पातकी होती हैं और वे ऊपर वणित जीवों की पत्नियों के रूप में जन्म ग्रहण करती हैं।
जब एक बार प्रायश्चित्तों के सिद्धान्त द्वारा उपनिषदों में वणित कर्म-सिद्धान्त ढीला कर दिया गया तो आरम्भिक कालों में भी पापों के परिणामों को दूर करने के अनेक प्रायश्चित्त-मार्ग व्यवस्थित हो गये। गौतम२९ने अपराधपूर्ण कमों के प्रभावों के शमन के लिए पाँच साधन बताये हैं, यथा--जप, तप, होम, उपवास एवं दान । देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड--४, जहाँ पृ० ४४-५१ में जप, १० ४२-४३ में तप, पृ० ४३४४ में होम, प० ५१-५२ में दान तथा पृ० ५२-५४ में उपवास पर विशेष रूप से लिखा हआ है। यहाँ कछ लिखना आवश्यक नहीं है। किन्तु कुछ विशिष्ट परिमार्जनों एवं साधनों की ओर ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है। शूद्रों एवं प्रतिलोम जातियों के सदस्यों को वेदाध्ययन की अनुमति नहीं थी, अत: मध्यकालीन ग्रन्थों, विशेषतः पूराणों ने यहाँ तक कह दिया कि कृष्ण के नाम का स्मरण सभी प्रायश्चित्तों एवं तपों से उत्तम है और यदि कोई व्यक्ति प्रातः, मध्याह्न, सायं, रात्रि या अन्य कालों में नारायण का स्मरण करता है उसके सभी पाप कट जाते हैं (विष्णुपुराण २।६।३६ एवं ४१, ब्रह्मपुराण २२।३६, जो प्रायश्चित्तविवेक पृ० ३१
२६. तस्य निष्क्रयणानि जपस्ततो होम उपवासो दानम् । गौ० ध० सू० (१६।११) । १६३१२ में गौतम ने वैदिक वचनों की एक लम्बी सूची दी है, जिनके पाठ से व्यक्ति पापों से मुक्त होता है । मनु (११।२४६-२५०) ने कुछ वैदिक सूक्त तथा मन्त्र निर्धारित किये हैं जिनके जप से ब्रह्महत्या, सुरापान, सोने की चोरी, गुरुतल्प-गमन (गुरु की पत्नी के साथ संभोग) तथा अन्य बड़े या हलके पाप नष्ट हो जाते हैं। मनु (११।२५६-२६०) मे अघमर्षण सूक्त (ऋ० १०।१६०।१-३) के जप की बड़ी प्रशंसा की है, क्योंकि उससे सभी पाप कट जाते हैं।
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