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________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त ३७७ ३।१।१, ब० उप० २।५।१-१५), संवर्गविद्या (छा० ४।३) । इसी प्रकार पञ्चाग्निविद्या भी एक उपासना है। ड्यूशन आदि ने इसे स्वीकार किया है कि जीवात्मा एवं परमात्मा की एकात्मता एवं कर्मों तथा आचरण पर आधृत आत्मा के पुनर्जन्म के विषय में महान् एवं मौलिक वचन याज्ञवल्क्य द्वारा कहे गये हैं जो बृ० उप० में पाये जाते हैं। पञ्चाग्नि विद्या का सम्बन्ध पुनर्जन्म के केवल एक पक्ष से है, और वह पक्ष है वह मार्ग जिसका अनुसरण वे लोग करते हैं जो ग्राम में रहते हुए यज्ञ, जन-कल्याण-कार्य एवं दान करते रहते हैं। पाँच अग्नियों एवं पाँच आहुतियों का सम्बन्ध केवल पितृयाण मार्ग से है। इसमें उस गति या दशा की गूढ़, एवं अर्ध भौतिक व्याख्या पायी जाती है जिसके द्वारा व्यक्ति इस पथिवी पर बार-बार जन्म लेते हैं। अधिक-से-अधिक यही तर्क उपस्थित किया जा सकता है कि कछ क्षत्रिय राजाओं या सामन्तों ने पवित्र लोगों द्वारा चन्द्र लोक से पनः पथिवी लोक पर आने की विधि पर किसी गढ या आध्यात्मिक व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त कर लिया होगा। इस विषय में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि प्रवाहण जैवलि किसी देश के राजा थे या मात्र एक क्षत्रिय (राजन्य, बृ० उप० ६।२।३ एवं छा० उप० ५।३।५), किन्तु इतना स्पष्ट रूप से कहा हुआ है कि अश्वपति केकय राज्य (भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित) के राजा थे, जब कि जीवात्मा एवं परमात्मा की एकात्मता एवं आत्मा की अमरता के मौलिक उदघोषक थे याज्ञवल्क्य, जो विदेह (मिथिला, बिहार प्रदेश) के निवासी थे जो केकय से कम-से-कम एक सहस्र मील दूर था। याज्ञवल्क्य का दर्शन केकय ऐसे सुदूर देश में एक लम्बे काल के उपरान्त ही पहुँचा होगा। यदि यह बात तक के लिए मान भी ली जाय कि अश्वपति के समान कुछ शासक ऐसे थे जिन्होंने सर्वप्रथम पवित्र याज्ञिकों (यज्ञ करने वालों) के सन्मुख पुनर्जन्म के मार्ग की व्याख्या उपस्थित की, तब भी ड्यूशन महोदय की स्थापना किसी प्रकार भी उपयुक्त पुष्ट प्रमाणों के समक्ष नहीं ठहरती। (प्रकृत विषय की चर्चा अब पुन: आरम्भ होती है।) उपनिषदों ने एक ऐसा कठोर नियम बनाया है कि सभी प्रकार के अच्छे या बुरे कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं और व्यक्ति के कर्मों एवं आचरण से ही आगे के जीवन निर्धारित एवं निश्चित होते हैं। किन्तु उपनिषदों के कुछ वचनों से प्रकट होता है कि उन्होंने इस विषय में कुछ अपवाद छोड़ रखे हैं। एक अपवाद यह है कि जब कोई व्यक्ति ब्रह्म की अनुभूति कर लेता है, उसके सभी अच्छे या बुरे कर्म जो ब्रह्मानुभूति के उपरान्त या भौतिक देह के मरने के पूर्व किये गये हों, कोई परिणाम नहीं उपस्थित करते। छा० उप० (६।१४१३) में सत्यकाम जाबाल ने अपने शिष्य उपकोसल से कहा है-'जिस प्रकार जल कमलदल से नहीं चिपक सकता, उसी प्रकार जो ब्रह्म को जानता है उसमें दुष्कर्म नहीं लगा रह सकता।' छा० उप० (५१२४१३) में पून: आया है-'जिस प्रकार इषीका--तूल के सूत्र अग्नि में भस्म हो जाते हैं उसी प्रकार वैश्वानर (ब्रह्म) के अभिप्राय को जानने वाले अग्निहोत्री व्यक्ति के बुरे कर्म भस्म हो जाते हैं।' ब० उप० (४१४१२२) में आया है-'जो इन दोनों को जानता है उसको ये अभिभूत नहीं करते, चाहे वह भले ही कहे कि किसी कारणवश उसने बुरा कर्म किया या किसी कारणवश अच्छा कर्म किया; वह इन दोनों को पार कर जाता है; उसे किया हुआ अथवा न किया हुआ, कोई भी कर्म नहीं तपाता।' मुण्डकोपनिषद् (२।२।८) ने व्यवस्था दी है-'जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च (कारण) को देख लेता है (उसकी अनुभूति कर लेता है) और निम्नतम (कार्य) भी जान लेता है तो उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं। किन्तु यह उन्हीं कर्मों के लिए सत्य है जो ब्रह्मानुभूति के पूर्व किये गये थे २५. यथा पुष्करपलाश आपो न श्लिष्यन्त इति । छा० उप० (४।१४।३); तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतवं हास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयते य एतदेवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति । छा० उप० (५।२४।३); एतमु हैवते न तरत ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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