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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास छा० उप० (१८) में उल्लेख है कि भारत के किसी भाग में (जिसकी चर्चा नहीं हुई है) तीन व्यक्ति, यथा--शिलक शालावत्य, चैकितायन दाल्भ्य एवं प्रवाहण जैवलि, ऐसे व्यक्ति थे जो उद्गीथ (अर्थात् ओम्) के गढ अर्थ में निष्णात थे। वे उद्गीथ पर विचार करने के लिए बैठ गये। प्रथम दो (जो ब्राह्मण थे) ने एक-दूसरे से प्रश्नोत्तर किया। इस पर प्रवाहण जैवलि ने उन्हें बताया कि वे ऐसे विषयों के बारे में उत्तर दे रहे हैं जो नित्य नहीं हैं। इसके उपरान्त प्रवाहण जैवलि ने उनसे कहा कि इस विश्व का मल आकाश है, प्राणियों की उत्पत्ति आकाश से हुई है और प्राणी पुनः वहीं लौट जायेंगे, तथा यह आकाश उद्गीथ है जो उच्च से उच्चतर है और अनन्त ....आदि है। ड्यूशन ने अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए इस वचन का भी सहारा लिया है। उपनिषदों में उद्गीथविद्या कतिपय उपासनाओं में परिगणित है। अतः जो बात प्रकट होती है, वह यह है कि प्रवाहण जैवलि को वह विद्याज्ञात थी और किसी स्थान (जिसका नामोल्लेख नहीं हुआ है) के दो ब्राह्मणों को वह अज्ञात थी। इस सिद्धान्त की, जो ब्राह्मणों को तादात्म्य (ब्रह्माद्वैतवाद) के केन्द्रीय सिद्धान्त से अनभिज्ञ ठहराता है, परीक्षा करके उसे ठीक मानना सम्भव नहीं है। इसी सन्दर्भ में (छा० उप० १।६।३) प्रवाहण जैवलि ने उल्लेख किया है कि अतिधन्या गौनक ने उदरशाण्डिल्य को उद्गीथ-विद्या का ज्ञान दिया था। ड्यशन ने बिना कोई प्रमाण उपस्थित किये वह दिया है कि यहाँ भी ब्राह्मण ने क्षत्रिय से शिक्षा ग्रहण की। वे सम्भवत: यह बात भल गये कि शौनक' एवं 'शाण्डिल्य' दोनों ब्राह्मण नाम हैं। यह तथ्य यह सिद्ध करता है कि अपने सिद्धान्त की पुष्टि में आतन्तावश एक गम्भीर विद्वान् भी किस प्रकार त्रुटियाँ कर सकता है। उन्होंने स्वयं लिखा है कि शौनक ने, जो वाहाण (अतिधन्वा नामक) था, एक अन्य ब्राह्मण (उदरशाण्डिल्य) को उस विद्या में शिक्षित किया। इसके अतिरिक्त, उद्गीथ विद्या कतिपय उपासनाओं में एक उपासना है और प्रवाहण ने जो पढ़ाया है वह यह है कि सभी भूत (प्राणी) आकाश से उत्पन्न होते हैं और उसी में पुनः समाहित हो जाते हैं, जिसका.अभिप्राय यह है कि आकाश ब्रह्म की ओर सकेत करता है, जैसा कि वे० स० (१११।२२) भी कहता है। मिलाइए यह सिद्धान्त तै० उप० (३१६, जो वे० सू० ११॥ आधार है) आदि से। इतना ही नहीं, छा० उप० के इस वचन में पुनर्जन्म के विषय में कुछ भी नहीं है। ड्यशन एवं भण्डारकर के मतों का आधार है पञ्चाग्निविद्या के विषय में प्रवाहण जैवलि एवं श्वेतकेतु का संवाद (ब० उप०६।२ एवं छा० उप० ५॥३-१०) तथा अश्वपति केकेय एवं डहालक आरुणि के बीच वैश्वानर विषय में हुई वार्ता (छा० उप०५।१२४)। दूसरी वार्ता के विषय में हम ऊपर पढ़ चुके हैं। प्रथम वार्ता वाला प्रसंग बड़ा महत्त्वपूर्ण है जिसे लोगों ने ठीक से समझा नहीं है। श्वेतकेतु एवं उसके पिता आरुणि ग ग्निविद्या बताने के पूर्व प्रवाहण जैवलि ने कहा है (छा० उप० ५।३१७)---'तुम्हारे पूर्व यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गयी ; अतः सभी लोकों में अधिकार (शासन) केवल क्षत्रिय जाति के पास ही रह सका है ।' बृ० उप० के वचन में शब्द आये हैं--'आज के पूर्व यह विद्या किसी ब्राह्मण में नहीं पायी जाती थी, किन्तु मैं तुम्हें इसे बताऊँगा, क्योंकि कौन व्यक्ति तुम्हें नहीं बतायेगा जो मुझे इस प्रकार सम्बोधित करते हो। (अर्थात् 'मैं आप के पास शिष्यरूप में उपस्थित हुआ हूँ)।' कौषीतकि उप० (१) में देवयान एवं पितृयाण का सिद्धान्त चित्र गार्यायणि द्वारा आरुणि (एवं उसके पुत्र श्वेतकेतु) को बतलाया गया है, किन्तु यह कथन कि केवल क्षत्रिय ही इस सिद्धान्त के उद्भावक एवं जानकार थे, वहाँ नहीं आया है और गार्यायणि ब्राह्मण अध्यापक के सदृश प्रतीत होते हैं। प्रश्न यह है-"छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक उपनिषदों के उपर्युक्त वचनों में इस विद्या' का क्या तात्पर्य है ?" उपनिषदों (विशेषत: छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक) में वैसे पुरुषों के लिए, जो ब्रह्मविद्या के मार्ग पर अधिक दूर नहीं जा सके हैं, ब्रह्म की उपासना के लिए कतिपय विद्याओं की विस्तृत चर्चा हुई है, यथा--उद्गीथविद्या (छा० उप० ११८-६, बृह० उप० ११३), दहरविद्या (छा० ८।१।१-२, बृ० उप० ११३, वे० सू० १।३।१४-२१), मधुविद्या (उप० छा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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