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________________ ३७२ धर्मशास्त्र का इतिहास होगा), इसी से यह दुःख मुझ पर घहरा पड़ा है', 'मैं बिना सन्देह के ऐसा मानती हूँ कि मैंने पूर्व जीवन में, उन गौओं (या माताओं) के स्तनों को काट दिया होगा जिनके बछड़े अपनी माँ का दूध पीना चाहते थे ।' पुराणों ने भी अच्छे एवं बुरे कर्मों की महत्ता पर बल दिया है। उनके कथनानुसार अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, जब तक फलों का नाश नहीं हो जाता। सैकड़ों जीवनों के उपरान्त भी कर्म का नाश नहीं होता । २२ पद्म पु० (२८१२४८ एवं ६४ । ११८ ) में आया है - 'बिना कर्मफल भोगे कर्म का नाश नहीं होता; अतीत जीवनों के कर्म से उत्पन्न बन्धन को कोई हटा नहीं सकता'; इसमें पुनः आया है- 'मनुष्य अपने कर्मों द्वारा देवता बन सकता है, या मानव बन सकता है, पशु या पक्षी या क्षुद्र जीव या स्थावर (वृक्ष या पाषाण -खण्ड) बन सकता है; अपनी शक्ति या सन्तान के उत्पत्ति से कोई व्यक्ति पूर्व जन्मों में किये गये कर्मो प्रभावों को दूर नहीं कर सकता । 23 उपनिषदों में वर्णित पुनर्जन्म की भावना बुद्ध के काल में सार्वभौम रूप धारण कर चुकी थी । बुद्ध ने नित्य व्यक्तित्व या आत्मा की बात को स्वीकार नहीं किया था । कोई आध्यात्मिक दार्शनिक नहीं थे, वे चाहते थे कि मानवता अबोधता ( अज्ञान ) एवं दुःख से मुक्ति पा सके और उसे निर्वाण प्राप्त हो जाये, इसी से उन्होंने आत्मा की नित्यता को अस्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त ग्रहण किया था। इसी सिलसिले में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है, यथा- क्या वेदान्तवादी विचारों के मौलिक उद्भावक क्षत्रिय थे, ब्राह्मण नहीं ? इस विषय में एक संक्षिप्त विवेचन इस महाग्रन्थ के खण्ड २ ( पृ० १०५ - १०७ ) में हो चुका है । ड्यूशन (डैस सिस्टेम डेस वेदान्त, १८८३, पृ० १८१६, एवं फिलॉसॉफी आव दि उपनिषद्, पृ० १८-१६, गेडेन द्वारा अंग्रेजी में अनूदित ) एवं डा० आर० जी० भण्डारकर (वैष्णविज्म एण्ड शैविज़्म, पृ० ६) ने मत प्रकाशित किया है कि क्षत्रिय लोग ही वेदान्तवादी सिद्धान्तों के मौलिक उद्भावक थे। ड्यूशन महोदय मुख्यतः ६ उक्तियों एवं डा भण्डारकर केवल दो उक्तियों ( छा० उप० ५। ३ एवं ११ ) पर निर्भर होते हैं । ड्यूशन महोदय का यह भी कथन है ( फिलॉ० उप पृ० १६) कि यह निष्कर्ष पूर्ण निश्चित नहीं है । उसमें केवल अधिक सम्भावना मात्र है । इस मत के विरोध में बार्थ ( रिलिजिएन्स आव इण्डिया, पृ० ६५), हॉप्किन्स ( एथिक्स आव इण्डिया १६२४, पृ० २२. अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । नाभुक्तं क्षीयते कर्म ह्यपि जन्मशतैः प्रिय ।। नारदीयपुराण ( उत्तर भाग २६ । १८ ) । 'नाभुक्तं क्षीयते कर्म' का उद्धरण शांकरभाष्य की टीका भावती ( वे० सू० ४।१।१३ ) में आया है । २३. उपभोगादृते तस्य नाश एव न विद्यते । प्रापतनं बन्धनं ( बन्धकं ? ) कर्म कोन्यथा कतुर्मर्हति ॥ पद्म० (२८१२४८ एवं ६४ । ११८ ) ; देवत्वमथ मानुष्यं पशूनां पक्षिणां तथा । तिर्यत्वं स्थावरत्वं च याति जन्तुः स्वकर्मभिः ॥ पूर्वदेहकृतं कर्म न कश्चित्पुरुषो भुवि । बलेन प्रजया वापि समर्थः कर्तुमन्यथा ।। पद्म० ( २२६४।१३, १५ ) । प्रथम पद्म० (२८१४३ ) में भी आया है । और देखिये ऋ० (५४) १० ), 'प्रजाभिरग्ने अमृतत्वमश्याम' एवं मनु ( ६१३७ ) -- 'पुत्रेण लोकाञ्जयति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते' । पद्म० के अनुसार ये वचन मात्र प्रशंसात्मक हैं । न तु भोगा पुण्यं पापं वा कर्म मानवम् । परित्यजति भोगाच्च पुण्यापुण्ये निबोध मे । मार्कण्डेय ( १४ । १७ ) ; यादृशं वपते बीजं क्षेत्रे तु कृषिकारकः । भुनक्ति तादृशं वत्स फलमेव न संशयः । । यादृशं क्रियते कर्म तादृशं परिभुज्यते । विनाश हेतु, कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम् ॥ पद्म० (२६४।७-८ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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