________________
कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
विल" विस्काउण्ट सैमुएल कृत 'बिलीफ एण्ड ऐक्शन' (पृ० ३०३-३२०) तथा एम० डेविड्सन कृत 'फ्री विल' (लण्डन, १६४८)। जहाँ तक भारतीय कर्म-सिद्धान्त का प्रश्न है, ऐसा प्रतीत होता है, इच्छा-स्वातन्त्र्य की बात इस जीवन (अस्तित्व) में अच्छे कर्म करने के लिए, नैतिक जीवन बिताने के लिए एवं श्लाघार्ह कर्म करने के लिए परिकल्पित की गयी है, किन्तु इस प्रकार के कर्म आदि इस जीवन की परिस्थितियों (वातावरणों) की सीमाओं पर निर्भर रहते हैं। महत्त्वपूर्ण क्रियाशील विश्वास यह है कि व्यक्ति को इच्छा-स्वातन्त्र्य प्राप्त है कि वह इस जीवन में अपने भावी जीवन (अस्तित्व)को इलाघाई कर्मों द्वारा कोई रूप देने में स्वतन्त्र है । यही शान्तिपर्व (२८०३ =२६११३ चित्रशाला संस्करण) का सन्देश है ।२१ गीता में श्री कृष्ण ने एक लम्बे विवेचन के उपरान्त अर्जुन को यह छूट दे दी कि 'जो चाहे सो करो' (१८१६३, 'यथेच्छसि तथा कुरु') । गीता (६।३०) का कथन है---'यदि कोई भ्रष्टचरित वाला व्यक्ति भी अविभक्त श्रद्धा से मेरी पूजा करता है, उसे सदाचारी अवश्य कहा जा सकता है, क्योंकि उसने दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली है। इसी प्रकार गीता (६१५) ने व्यवस्था दी है-'व्यक्ति स्वयं अपने को ऊपर उठाये, वह अपने को नीचे न गिराये, क्योंकि केवल आत्मा ही उसका सच्चा मित्र है और केवल आत्मा ही उसका शत्र है। प्राचीन भारतीय सिद्धान्त के अनुसार दोनों, अर्थात् प्रारब्धवाद (अग्रनिरूपित-निर्देश अथवा दैववाद) एवं इच्छा-स्वातन्त्र्यवाद को स्वीकार करना सम्भव है, प्रथम के अनुसार व्यक्ति किसी विशिष्ट वातावरण में जन्म लेता है और दूसरे के अनुसार व्यक्ति का इस जीवन (वर्तमान अस्तित्व ) के कर्मों से सम्बन्ध है। प्रारब्धवाद (दैववाद)के अनसार व्यक्ति का किसी विशिष्ट वातावरण में जन्म लेना निश्चित रहता है और इच्छा-स्वातन्त्र्यवाद के अनुसार व्यक्ति अपने उपस्थित जीवन के कर्मों के प्रति स्वतन्त्र रहता है। भगवद्गीता (६३५-६) तो पापी के लिए भी आशा बंधाती है कि सुधार करने के लिए देरी की चिन्ता नहीं करनी चाहिए अर्थात् देरी हो जाने पर भी सुधार का आरम्भ किया जा सकता है और पुन: कहा है (२।४०) कि सदाचार का अल्पांश भी महान भय से व्यक्ति की रक्षा करता है और व्यवसाय (उद्योग या प्रयास) कभी नष्ट नहीं होता।
यद्यपि गीता का सामान्य झुकाव इच्छा-स्वातन्त्र्य के सिद्धान्त की ओर ही है तथापि कुछ ऐसी उक्तियाँ भी हैं जिनमें पूर्वनिर्धारणवाद (प्रारब्धवाद, अर्थात् वह सिद्धान्त जिसके अनुसार सब कुछ पहले से ही निश्चित रहता है-इस जीवन में क्या होगा, यह पहले से ही निश्चित है) की झलक मिलती है। यथा, 'प्रकृतिजन्य गुणों के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति को असहाय रूप से कर्म करने पड़ते हैं' (३।३३)--"हठवादिता के कारण तुम सोचते हो, 'मैं युद्ध नहीं करूँगा', तुम्हारी यह प्रतिज्ञा व्यर्थ है; तुम्हारा स्वभाव तुम्हें वैसा करने को बाध्य करेगा; तुम अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्मों से ही विवश होकर असहाय रूप में वह कार्य करोगे जिसे तुम करना नहीं चाहते हो (१८१५६-६०)।' यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि बचपन के वातावरण के विषय में इच्छा की स्वतन्त्रता की बात ही नहीं उठती ।
रामायण ने इस विश्वास को व्यक्त किया है कि वर्तमान जीवन की चिन्ता या दुःख अतीत जीवन या जीवनों में किये गये ऐसे ही कर्मों का परिणाम है। जब कैकेयी द्वारा वरदान मांगने पर राजा दशरथ ने राम को वनवास दे दिया तो राम की माता कौशल्या रोती हुई कहती हैं---'मैं विश्वास करती हूँ कि मैंने पूर्व जन्म में बहुतसे लोगों को उनके पुत्रों से दूर कर दिया होगा या जीवित प्राणियों को हानि की होगी (या उन्हें मार डाला
२१. आयुर्न सुलभं लब्ध्वा नायकर्षेद् विशांपते । उत्कर्षार्थ प्रयतते नरः पुण्येन कर्मणा ॥ शान्ति० २८०॥३ (२६११३, चित्रशाला)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
w