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कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त
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६३), मैक्डोनेल एवं कीथ (वैदिक इण्डिया, जिल्द २, पृ० २०६) एवं टक्सेन (दि रिलिजिएन्स आव इण्डिया, कोपेनहेगेन, १६४६, पृ० ८८) ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। ड्यूशन महोदय ने तो यहाँ तक कहा है (पृ. १६)--'अत्मा-सम्बन्धी यह शिक्षा उनसे (ब्राह्मणों से) जानबूझ कर पृथक रखी गयी थी, और यह क्षत्रियों की छोटी मण्डली में ही दी जाती थी। हम यहाँ इस मत की परीक्षा करेंगे।
प्राचीन उपनिषदों के प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त दो हैं, यथा--(१) जीवात्मा एवं परम ब्रह्म को अभिन्नता एवं (२) व्यक्ति के कर्तव्यों एवं आचरण पर आत्मा के आवागमन (पुनर्जन्म) का निर्भर होना। इन दोनों सिद्धान्तों को याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को बताया है (बृ. उप० ४।४।४-७ तथा अन्य वचन जो नीचे दिये जा रहे हैं)। ड्यूशन ने औपनिषदिक बातों में इन बातों को सबसे अति गम्भीर सत्य एवं श्रेष्ठ कहा है। इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य के शब्द, जो ब० उप० (३।२।१३ 'जो अच्छा करता है, वह अच्छा जन्म पाता है'; ४१४१५ : 'जो अच्छा करता है, वह अच्छा जन्म पाता है, जो बुरा करता है, वह बुरा जन्म पाता है . . . जो पवित्र कार्य आदि.. करता है वह पवित्र हो जाता है') में पाये जाते हैं, उन्हें स्वयं ड्यूशन महोदय ने पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त के विषय में सबसे अधिक प्राचीन माना है। इसके साथ स्वयं ड्यशन महोदय की उक्ति से सिद्ध हो जाता है कि उपनिषदों के दो प्रमुख मौलिक सिद्धान्तों का उद्घोष ब्राह्मण याज्ञवल्क्य द्वारा किया गया था, जिन्होंने उसी उपनिषद् (बृ. उप० २।४।१-१४) में अपनी पत्नी मैत्रेयी से आत्मा एवं तत्त्वों आदि का ब्रह्म से तादात्म्य बताया है (इदं सर्व यदयमात्मा)। इतना ही नहीं, इन सिद्धान्तों की शिक्षा देने वाले अन्य शिक्षक भी थे । उदाहरणार्थ, उद्दालक आरुणि ने विस्तार के साथ अपने पुत्र श्वेतकेतु को 'तत्त्वमासि' (छा० उप० ६१८-१६) का अर्थ समझाया है ।
अब हम उन उदाहरणों की जाँच करेंगे जिन पर ड्यूशन महोदय ने अपने निष्कर्ष आधत किये हैं। छा० उप० (५।११।१) में एक कथा आयी है। पांच ऐसे गहस्थ, जो वेद के महान पाठक थे, आपस में मिले और 'आत्मा' तथा 'ब्रह्म' के विषय में उन्होंने चर्चा की। उन्होंने उहालक आरुणि के पास, जो 'वैश्वानर' नामतः आत्मा के विषय में जानते थे, जाने को सोचा। जब वे उनके यहां पहुंचे तो उद्दालक आरुणि ने कहा कि में स्वयं सभी कुछ की व्याख्या नहीं कर सकूँगा अतः तुम लोगों को अश्वपति कैकेय (केकय देश के राजा) के पास जाना चाहिए, जो वैश्वानर नामक आत्मा की जानकारी रखते हैं। उद्दालक के साथ वे सभी गृहस्थ अश्वपति कैकेय के पास पहुँचे । जिन्होंने दूसरे दिन प्रश्न का उत्तर देने को कहा। दूसरे दिन बे छह व्यक्ति समिधा लेकर राजा के पास पहुंचे । अश्वपति कैकेय ने अन्य आरम्भिक कृत्यों को स्थगित कर दिया और उनसे पूछा कि उनमें प्रत्येक किसका ध्यान करता है। जब सब ने ध्यान के आधार, यथा-स्वर्ग, आदित्य, वायु, आकाश एवं पृथिवी (इसका नाम उद्दालक ने लिया) की बात बतला दी तो राजा ने बताया कि ये सभी वैश्वानर के अंश (भाग) हैं और उन्होंने उनसे अग्निहोत्र के सम्पादन की उचित विधि भी बतला दी।
दो बात विचारणीय हैं । एक तो यह कि यहाँ पर उद्दालक आरुणि को वास्तविक 'वैश्वानरविद्या' में अनभिज्ञ कहा गया है, किन्तु दूसरे ही परिच्छेद (छा० उप० ६।८१७.....) में उन्हें 'तत्त्वमसि' नामक श्रेष्ठ सिद्धान्त का व्याख्याता (शिक्षक) कहा गया है। सम्भवतः ये दोनों उद्दालक एक ही नहीं हैं, हैं या यह कथा ही कपोलकल्पित है। दूसरी बात यह है कि अश्वपति कैकेय ने जो कुछ सिखाया वह वैश्वानर के विषय में था. न कि ब्रह्मविद्या (जीवात्मा एवं परम ब्रह्म के तादात्म्य) के विषय में। यास्क के काल के पूर्व से ही वैश्वानर के विषय में कई मत थे, जिनका उल्लेख बहुधा ऋग्वेद (११५२१६, ११६८१) में हुआ है। निरुक्त (२१-२३) ने तीन विभिन्न मत उद्धृत किये हैं, यथा-वैश्वानर विद्युत् है, या आदित्य है
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