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________________ कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त ३६७ श्लोक में ) कहा है कि ऐसा व्यक्ति जो पूर्णता प्राप्ति में असफल हो जाता है, किसी बुरे अन्त को नहीं प्राप्त होता, प्रत्युत वह सदाचारी लोगों के लोकों को जाता है और वहाँ पर बहुत वर्षों तक निवास करता है, समृद्ध एवं पवित्र लोगों के घरों में जन्म लेता है या विज्ञ योगियों के कुल में जन्म लेता है जहाँ पर वह अपने अतीत अस्तित्वों के मानसिक चिह्नों को पुनः प्राप्त करता है । वह पूर्णता की प्राप्ति के लिए पुनः उद्योगशील होता है और अपने पूर्व जीवनों में किये गये अभ्यासों ( के फलस्वरूप ) अनिवार्य रूप से आगे बढ़ता है और सभी पापों से मुक्त हो कर एवं बहुत से जीवनों द्वारा अपने को पूर्ण करता हुआ परम तत्त्व (लक्ष्य, ब्रह्मपद) को प्राप्त करता है। गीता ( ४/५ ) में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मेरे बहुत-से जीवन हैं जो बीत चुके हैं, और तुम्हारे भी। मैं उन सभी को जानता हूँ, किन्तु तुम नहीं जानते ।' कई स्थलों पर गीता ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्पर्श किया है ( यथा -- २११२-१३ एवं २२-२७, ४५८-६, ७१६, ८६, १५-१६, ६।२१) । वनपर्व के अध्याय ३०-३२ ( चित्रशाला संस्करण) में द्रौपदी एवं युधिष्ठिर में एक वार्तालाप हुआ है । युधिष्ठिर ने कौरवों के साथ द्यूत खेल कर सारा राज्य खो दिया था और वन में बड़े कष्ट से जीवनयापन कर रहे थे । द्रौपदी को इस बात का बड़ा आश्चर्य था कि युधिष्ठिर ऐसे सत्यवादी, उदार, ऋजु एवं मधुर व्यक्ति किस प्रकार छूत ऐसे निकृष्ट कार्य में संलग्न हुए (३०११६) और भगवान सभी जीवों के साथ माता-पिता-सा समान व्यवहार नहीं करता । द्रौपदी को यह जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि सदाचारी सम्मानित व्यक्ति दुःख उठा रहे हैं और दुराचारी एवं असम्मानित लोग आनन्दपूर्वक जीवन-यापन कर रहे हैं । अतः उसने सोचा कि भगवान् सामान्य मनुष्य की भाँति शीघ्रकोपी या चण्डस्वभाव वाले हैं (३० । ३८-३६) । उसने कहा - ' मानव प्राणी भगवान् की इच्छा के आधार पर ही अबोध तथा सुख एवं दुःख पर नियन्त्रण रख सकने के कारण स्वर्ग या नरक में जाते हैं । इस पर युधिष्ठिर ने द्रौपदी को चेतावनी दी कि तुम नास्तिक लोगों की भाँति बातें कर रही हो । उन्होंने कहा कि मैंने कोई कर्म इसलिए नहीं किया कि उसका पुरस्कार मिले, मैंने दान दिया, यज्ञ किये, किन्तु इसलिए कि उन्हें सम्पादित करना अपना कर्तव्य माना। उन्होंने द्रौपदी से अनीश्वरवादी व्यवहार से दूर रहने को कहा और कहा कि वह अपनी भावनाओं से भगवान् का अनादर कर रही है । इस पर द्रौपदी की बुद्धि लौटी और उसने क्षमा याचना कर कहा कि दुःखित होने के कारण ही मैंने वैसी अनीश्वरवादी बात कही, वास्तव में, भगवान् का बहुत आदर एवं सम्मान करती हूँ । इसके उपरान्त द्रौपदी ने उस विषय पर विचार-विमर्ष करना आरम्भ किया, जिसे लोग दिष्ट (भाग्य) या हठ ( संयोग ) या स्वभाव कहते हैं और अन्त में यही निष्कर्ष निकाला कि व्यक्ति जो कुछ प्राप्त करता है वह पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है । ८ यहां पर पुरुषकार (मानवीय उद्योग या व्यवसाय) तथा देव पर कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है । इस विषय में हम इस महाग्रन्थ के मूल खण्ड ३, पृ० १६८- १७० एवं पाद टिप्पणी २१४ - २१६ में पढ़ चुके हैं, जहाँ प्राचीन एवं मध्यकालीन लेखकों के विभिन्न मतों का विवेचन उपस्थित किया गया है । १८. तथैव हठदुर्बुद्धिः शक्तः कर्मण्यकर्मकृत् । आसीत न चिरं दिह यः कश्चिदर्थं प्राप्नोति पूरुषः । त हठेनेति मन्यन्ते स हि यत्नो न स्वभावात्कर्मणस्तथा । यानि प्राप्नोति पुरुषस्तत्फलं पूर्वकर्मणाम् ॥ वनपर्व ने 'हठवाविक' का अर्थ यों किया किया है: प्राग्जन्माभावावकृ तमेवोपस्थास्यतीति वदन् चार्वाकः ।' जीवेदनाथ इव दुर्बलः । अकस्माकस्यचित् ॥ एवं हयाच्च देवाच्च (३२।१५ - १६, २०) नीलकण्ठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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