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पर्मशाल का इतिहास पुनर्जन्म का सिद्धान्त यह स्वीकार करता है कि प्रत्येक जीवन पूर्व अस्तित्व या अस्तित्वों (जीवनों) के कर्मों का परिणाम या प्रतिफल है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि हम अतीत की ओर बढ़े और बहुत दूर तक निकल जायें तो कोई अस्तित्व या जन्म प्रथम नहीं हो सकता। इसी से वेदान्तसूत्र को यह घोषणा करनी पड़ी कि (२।१।३५, 'न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात') संसार अनादि (आरम्भहीन) है । किन्तु यह उपनिषदों के कई वचनों के विरुद्ध पड़ जाता है, जो सृष्टि के विषय में उल्लेख करते हुए पूर्वे' या 'अग्रे' या 'आरम्भ में' नामक शब्दों का प्रयोग करती हैं (छा० उप० ६।२।१, बृ० उप० १४, १।१० एवं १७, ५।।१, त० उप० २७१) । इस विरोध को दूर करने के लिए कल्पों की धारणा के अनुसार प्रलय के उपरान्त वार-बार विश्व की रचना की धारणा उपस्थित की गयी, जिसका अर्थ यह है कि ब्रह्म द्वारा रचित विश्व एक कल्प तक चलता है, जिसके उपरान्त वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। देखिए, शान्तिपर्व (२३१।२६-३२-२२४।२८-३१ चित्रशाला संस्करण) । गीता (८1१७-१६) में आया है कि ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र युगों के बराबर होता है (चार युगों का एक महायुग होता है) और ब्रह्मा की रात्रि की अवधि भी इतनी ही लम्बी है। ब्रह्मा के दिन के आगमन पर प्रकृति से सभी पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं, और रात्रि के आगमन पर वे सभी प्रकृति में समा जाते हैं। देखिए भगवद्गीता (७) : 'कल्प के अन्त में सभी तत्त्व (जीव) उस प्रकृति में, जिसका मैं अधिष्ठाता हूँ, चले जाते हैं; किन्तु जब दूसरा कल्प आरम्भ होता है मैं उन्हें प्रकट कर देता हूँ ।'
तर्क यह है--जिस प्रकार हम यह नहीं निश्चित कर सकते कि पहले कौन हआ बीज या अंकरित होने वाली ओषधि (पौधा) । उसी प्रकार यह कहना असम्भव है कि पहले कौन आता है, शरीर या कर्म, क्योंकि बिना कर्म के कोई शरीर नहीं और न बिना शरीर के कोई कर्म। छा० उप० (५१३१२) में आया है-'उस प्राणी (देवता) ने, जिसने अग्नि, जल एवं पृथिवी की उत्पत्ति की, सोचा--इस जीवात्मा के साथ मैं इन तीनों जीवों (अग्नि, जल एवं पथिवी) में प्रवेश करूँगा और तब नामों एवं रूपों को विकसित करूंगा।' इससे प्रकट होता है कि सष्टि के समय जीव (आत्मा) का अस्तित्व था, जिससे यह संकेत मिलता है कि संसार आरम्भहीन (अनादि) है । ऋग्वेद (१०।१६०।३) ने स्पष्ट कहा है-"धाता यथापूर्वमकल्पयत' अर्थात् विधाता ने पहले की भाँति व्यवस्थित किया (या रचा)।" इसी प्रकार गीता (१५॥३) में आया है'इस (संसार के वृक्ष) का वास्तविक रूप इस प्रकार नहीं जाना जाता, और न इसका अन्त न आदि और न आधार ही जाना जाता है; शक्तिशाली अनासक्ति से दृढ़ता से जड़ीभूत इस अश्वत्थ (पिप्पल) वृक्ष को काट कर उस स्थल की खोज की जानी चाहिए जिससे वे लोग, जो वहाँ पहुँच गये हैं, नहीं लौटते ।'
भगवद्गीता (६।३७-४५) ने दृढतापूर्वक कहा है कि योग के मार्ग में व्यक्ति द्वारा श्रद्धा से किया गया व्यवसाय व्यर्थ नहीं जाता, भले ही उसे पूर्णता शीघ्र प्राप्त न हो सके। श्री कृष्ण ने (६।४० और आगे के
कार्यप्रपञ्चपरिणामप्रक्रियां चाश्रयति सगुणेषूपासननेषूपयोक्ष्यत इति । शाङकरभाष्य ने अन्त में लिखा है। धे० सू० (२।१।१३) में आया है : 'भोक्त्रापत्तेरविभागश्चेत्स्याल्लोकवत्'।
१७. ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र महायुगों के बराबर होता है और इसे ही 'कल्प' कहा जाता है। कल्प, मन्वन्तर, महायुग एवं युग के लिए देखिए' इसी खण्ड का अध्याय १६ । प्राचीन उपनिषदों ने कल्पों आदि के सिद्धान्त की व्याख्या नहीं की है।
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