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विश्व-विद्या
के एवं वर्षों के नामों में सन्दिग्धता पायी जाती है। वायुपु० (३०।३८-४०) में पुत्रों के ये ही नाम आये हैं और ३३।४१-४५ में उन्हीं वर्षों का उल्लेख है, केवल भद्राश्व के स्थान पर माल्यवत् नाम आया है ।
वायुपुराण (४५।७५-८१) में ऐसा आया है कि भारतवर्ष समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है और मनु को भरत कहा गया क्योंकि उन्होंने अपनी प्रजा अर्थात् या लोक का भरण किया और इसी से इस वर्ष को भारत कहा गया। यही बात ब्रह्मण्डपु० (२।१६।७) में। भी है । वायुपु० ने स्वयं विरोधी बात लिखी है ( ३३।५०-५२ ) कि नाभि का पुत्र ऋषभ था, जिसका पुत्र था भरत, जिसके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा । यही बात ब्रह्माण्डपु० (२।१४।६०-६२) में भी है । वायुपु० (६६।१३४ ) में यह भी आया है कि दुष्यन्त एवं शकुन्तला से भरत उत्पन्न हुए और उनके नाम पर भारत पड़ा । भारत
४०. उत्तरं यत्समद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तदभारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥ नवयोजनसाहलो विस्तारश्च द्विजोत्तमाः । कर्मभमिरियं स्वर्गमपवर्ग च गच्छताम् ॥ महेन्द्रो'मलयः सद्यः शक्तिमानक्षपर्वतः । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥ विष्णुपु० (२॥३॥१-३), ब्रह्मपु० (१६३१-३); देखिए अग्नि० (११८ । १-३, जहां ऋक्षपर्वत के स्थान पर हेमपर्वत आया है), मार्कण्डेयपु० (५४११०-११), ब्रह्माण्ड० (२०१६-५ एवं १८-१६) । यह द्रष्टव्य है कि पाणिनि ने स्पष्ट रूप से इन पर्वतों में केवल 'हिमवत्' (४।४।११२) का नाम लिया है जब कि उन्हें किंशुलुकगिरि ऐसे अन्य पर्वतों के नाम विदित थे (६।३।११७)। अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपं महामुने । यतो हि कर्मभूरेषा यतोन्या भोगभूमयः ॥ ब्रह्म० (१६३२३), विष्णुपु० (२।३।२२), इस श्लोक के उपरान्त दोनों में कई इलोक एक समान हैं। भीष्मपर्व (६।११) में 'महेन्द्रो...' नामक श्लोक है, किन्तु वहाँ 'ऋक्षवान्' नाम आया है, किन्तु अध्याय ६ (श्लोक ४-५) में केवल ६ पर्वतों के ही नाम आये हैं।
४१. विष्णपु० (२॥१॥३२) की वायुपु० (३३३५०-५२) से सहमति है । शाकुन्तल (अंक ७) में कालिदास ने एक पात्र से कहलवाया है कि शकुन्तला का पुत्र, जो कण्व के आश्रम में सर्वदमन कहा जाता था, भरत के नाम से प्रसिद्ध होगा (इहायं सत्त्वानां प्रसभदमनात्सर्वदमनः पुनर्यास्यत्याख्यां भरत इति लोकस्य मरणात्) । यह सम्भव है कि कालिदास के काल तक शकुन्तला का पुत्र भारतवर्ष के नाम से सम्बन्धित नहीं था, अन्यथा कवि को एक अन्य भविष्यवाणी करने में कि उसके नाम से एक वर्ष भी सम्बन्धित होगा, कौन रुकावट थी। पाणिनि ने 'प्राच्यों' एवं 'भरतों' (२॥४॥६६ एवं ४।२।११३) का उल्लेख किया है। भरत लोग प्राचीन थे और उनका ऋग्वेद (३॥३३॥११-२२) में कई बार उल्लेख हुआ है । भरतों को 'ग्राम' अर्थात् एक दल या संघ के रूप में भी कहा गया है जिसने 'विपाश्' एवं शुतुद्रि (आधुनिक व्यास एवं सतलज) के संगम को पार किया था (३।२३१२), भरतों ने घर्षण से अग्नि उत्पन्न की थी (३॥५३॥१२, जहां पर ऐसा आया है कि विश्वामित्र की स्तुति ने भारत-जन की रक्षा की थी)। बहुत-से मन्त्रों में अग्नि को 'भारत' कहा गया है (ऋ० २१७१ एवं ५, ४।२।४, ६।१६।१६ एवं ४५) ऐतरेयब्राह्मण (३६१६) में ऐसा आया है कि दीर्घतमा मामतेय ने भरत दौष्पन्ति (दौष्यन्ति) को ऐन्द्र महाभिषेक 'द्वारा मुकुट दिया (राजा बनाया)
और उसके उपरान्त भरत ने चारों ओर राज्य जीता, कई अश्वमेध किये । इसके उपरान्त पाँच ऐसे श्लोक उद्धत हैं जो यह बताते हैं कि भरत ने मस्नार देश में असंख्य हाथियों का दान किया, उन्होंने यमुना एवं गंगा के तट पर यज्ञ किये । अन्तिम श्लोक (पाँचवाँ) में आया है : 'महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः।
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