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________________ ३४४ धर्मशास्त्र का इतिहास लिया है । जम्बूद्वीप कम से कम ई० पू० ३०० में ज्ञात था, जैसा कि अशोक के शिलालेख (रूपनाथ प्रस्तर लेख) से पता चलता है । 'द्वीप' शब्द ऋग्वेद (१।१६६ । ३ एवं ७।२०१४, 'वि द्वीपानि (पापतन् ) में भी आया है । पाणिनि ( ६ |३|६७ ) ने इसे 'द्वि' एवं 'आप' से निष्पक्ष माना है । हम यहाँ पर केवल संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करेंगे । मत्स्यपुराण ( ११३।४-५ ) ने कहा है कि सहस्रों द्वीप हैं, किन्तु सबका वर्णन सम्भव नहीं है, अतः केवल सात द्वीपों का वर्णन उपस्थित किया जायगा । ३८ इस पुराण के अध्याय १२१-१२३ में सात द्वीप ये हैं - जम्बूद्वीप, शकद्वीप, कुश, कौञ्च, शाल्मलि, गोमेदक एवं पुष्कर, जिनमें प्रत्येक आगे वाला अपने से पीछे वाले से दुगुना है, प्रत्येक समुद्र से आवृत है, 'प्रत्येक में सात वर्ष, सात प्रमुख पर्वत एवं सात मुख्य नदियाँ हैं। सात द्वीपों को घेरने वाले सात समुद्र क्रम से सब लवण (नमकीन) जल, दुग्ध, घृत ( गला हुआ), दधि, सुरा, ईखरस एवं शुद्ध जल से परिपूर्ण हैं । 3 विभिन्न पुराणों में नाम क्रम विभिन्न हैं, यथा विष्णु पु० 1 (२।१।१२-१४, २०२५) एवं ब्रह्म पु० ( १८ । ११ ) ने उन्हें प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शक एवं पुष्कर नाम से अभिहित किया है । वायु पु० ( ३३।११-१४), कूर्म पु० ( १२४५।३), मार्कण्डेय पु० (५०।१८-२० ) ने इन सातों को उसी क्रम में रखा है । कल्प, मन्वन्तर, युग से सम्बन्धित पुराण- वृत्तान्त हम इस महाग्रन्थ के खण्ड ३ एवं इस खण्ड ( अर्थात् ५) में विस्तारपूर्वक पढ़ चुके हैं। इन विषयों पर पुराणों में सहस्रों श्लोक पाये जाते हैं । विष्णुपु० (२।२।१३ - २४ ) ने निम्नोक्त वर्ष गिनाये हैं-- भारत ( सब में प्रथम ) किम्पुरुष, हरि, रम्यक, हिरण्मय, उत्तर- कुरु, इलावृत एवं केतुमाल | वामन पु० ( १३।२-५ ) ने भी यही उल्लिखित किया है, किन्तु रम्यक के स्थान पर चम्पक रखा है । विष्णु पु० (२।१।१६ - १७) में आया है कि नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्य, हिरण्वान्, कुरु, भद्राश्व, केतुमाल नौ राजा थे, जो आग्नीध्र के पुत्र, प्रियव्रत के पौत्र, स्वायभुव मनु के प्रपौत्र थे । आग्नीध के नौ पुत्रों को दिये गये वर्षों के नाम क्रम से यों हैं --हिमा (अर्थात् भारत), हेमकूट, नैषध, इलावृत, नीलाचल, श्वेत, शृंगवान्, मेरु के पूर्व में एक वर्ष, गन्धमादन । अतः राजाओं महाभूमिप्रमाणं च लोकालोकस्तथैव च । पर्याप्तिपरिमाणं च गतिश्चन्द्रार्कयोस्तथा ॥ एतद् ब्रवीहि नः सर्व विस्तरेण यथार्थवित् । त्वदुक्तमेतत्सकलं श्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥ सूत उवाच । द्वीपभेदसहस्राणि सप्त चान्तर्गतानि च । न शक्यन्ते क्रमेणेह वक्तु ं वै सकलं जगत् । सप्तेव तु प्रवक्ष्यामि चन्द्रादित्यग्रहैः सह ॥ मत्स्य ० ( ११३०१-५), वायु० (१३४।१-३, ६-७ ), ब्रह्माण्ड० (२।१५५२-३, ५-६ ), मार्कण्डेय० (५१।१-३) । ३८. द्वीप सामान्यतः सात की संख्या में परिगणित होते रहे हैं, परन्तु कभी-कभी वे १८ भी कहे गये हैं, यथा वायु पु० ( १।१५) में -- ' अष्टादश समुद्रस्य द्वीपानश्नात् पुरूरवाः ' तथा कालिदास ( रघुवंश ६।३८ ) : 'अष्टादशद्वीप -निखातयूपः । द्वीप को यहाँ पर 'महाद्वीपों' (कण्टीनेण्ट्स) के अर्थ में न लेकर केवल 'द्वीप' (आइलैण्ड) के ही अर्थ में लेना सम्भव लगता है । पाणिनि ( ४ | ३ | १० ) के 'द्वीपादनुसमुद्रम यज्ञ' से पता चलता है कि 'द्वीप समुद्र-तट के पास के आइलैण्ड ( द्वीप) के लिए प्रयुक्त हुआ है। देखिए शशिभूषण चौधुरी का लेख 'नाइन द्वीपच आव भारतवर्ष' (इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्व ५६, पृ० २०४ - २०८ एवं २२४-२२६) । ३६. एते द्वीपाः समुद्रस्तु सप्त सप्तभिरावृताः । लवणेक्षुसुरासपिबंधिदुग्धजलं: समम् ॥ विष्णु पु० ( २२२२६), ब्रह्मपु० ( १८/१२), मार्क० (५१1७), लवणे ... दधिक्षीरजलादिभिः । द्विगद्विगणैव द्वया सर्वतः परिवेष्टिताः ॥ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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