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________________ विश्व-विद्या ४५,४६ एवं ४७ में देवों, पितरों, मानवों, चार वर्णों, पशुओं, पक्षियों, वृक्षों, गुल्मों आदि की रचना का वर्णन है । इसमें अन्य पुराणों के वचन उद्धृत हैं, जिन्हें स्थानाभाव से नहीं दिया जा रहा है ।३५ उपनिषदों में भौगोलिक बातें बहुत कम हैं और वे हिमालय एवं विन्ध्य के मध्य के भूमिक्षेत्र से ही सम्बन्धित हैं (कौषीतक्युपनिषद् २०१३ ने दो पर्वतों का, जो उत्तर एवं दक्षिण में हैं, उल्लेख किया है, वृह उप० १।१।१-२ ने पूर्वी एवं पश्चिमी समुद्रों की ओर इंगित किया है, ऐसा प्रतीत होता है) । सुन्दर एवं भव्य अश्व सिन्धु देश से लाये जाते थे (बृ. उप० ६:११३), गान्धार देश (छा० उप० ६।१४।२) का सम्भवत: पता था और वह उपनिषद् के प्रणयन-स्थल से कुछ दूरी पर था। मद्र देश का उल्लेख बृ० उप० (३।३।१७ एवं ३।७।१) में हुआ है। विदेह के राजा जनक थे, जिनकी राजसभा में कुरु, पञ्चाल्ल से ब्राह्मण आते थे और याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करते थे (बृह० उप० ३।१।१) । काशी (वाराणसी) के राजा अजातशत्रु ने बालाकि गार्ग्य का गर्व चूर कर दिया (बृह° उप० २।१।१ एवं कौषीतकि उप० ४।१।१)। कौषीतकि उप० (४।१।१) ने तो वश, उशीनर, कुरु, पञ्चाल एवं विदेह का उल्लेख किया है। कुरु का उल्लेख छा० उप० (१।१०।१, ४।१७।१०) में हुआ है। पञ्चाल की चर्चा भी छा० उप० (५।३।१) एवं बृ० उप० (६।२।१) में हुई है । केकय (सुदूर उत्तर-पश्चिम) के राजा अश्वपति ने ब्राह्मणों को वैश्वानर-विद्या का ज्ञान दिया। पुराणों ने जगत् का विवरण विशद रूप से दिया है, अर्थात् उनमें द्वीपों (पृथिवी के भागों), वर्षों, पर्वतों, समुद्रों, नदियों, उनके पास के देशों एवं उनके विस्तार, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रों की गतियों, युगों, मन्वन्तरों एवं कल्पों का उल्लेख पाया जाता है । ७ धर्मशास्त्र-ग्रन्थों ने इस विषय में पुराणों का आधार ३५. बहुत-से पुराणों ने एक ही प्रकार के श्लोक दिये हैं। उदाहरणस्वरूप थोड़े-से श्लोक यहाँ दिये जा रहे है--अच्यषतं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमः । प्रोच्यते प्रकृतिः सूक्ष्मा नित्यं सदसदात्मकम् ॥... त्रिगुणं तज्जगद्योनिरनादिप्रभवात्ययम् ।...वेदवदाविदो विद्वन्नियता ब्रह्मवादिनः। पठन्ति चैतमेवार्थ प्रधानप्रतिपादकम् ॥ नाहो न रात्रिन नभो न भूमि सोत्तमो ज्योतिरभूच्च नान्यत् । श्रोत्रादिबुद्धयानुफ्लन्यमेकं प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत् ।। विष्णोः स्वरूपात्परतोदिते द्वे रूपे प्रधानं पुरुषश्च विप्र । विष्णु पु० (१।२।१६, २१-२४); ब्रह्माण्ड पु० (११३।१-६) 'अव्यक्तकारणं... दात्मकम् । प्रधानं प्रकृतिं चैव यमाहुस्तत्त्वचिन्तकाः॥; वायु पु० (४.१७) में आया है-'अव्यक्तं कारणं यत्तु नित्यं सदसदात्मकम् । प्रधानं ... तत्त्वचिन्तकाः ॥ ब्रह्म पु० (१३३३) में आया है-'अव्यक्तं...त्मकम् । प्रधानं पुरुषस्तस्मानिर्ममे विश्वमीश्वरः॥ मार्कण्डेय पु०, अध्याय ४२॥३६-५२ एवं ५६-६३ सर्वथा विष्णु पु० (११२॥३४-४६, ५१-५५) के समान ही है। ३६. पुराणों में प्राचीन भारत के समय का जो भौगोलिक उल्लेख मिलता है उस पर अत्यन्त पूर्ण एवं क्रमबद्ध ग्रन्थ है श्री डब्लू किर्फेल कृत 'डाई कॉस्मोग्रैफी डर इण्डर' (बॉन, १६२०, पृ० ४०१)जिसमें चित्र भी उपस्थित किये गये हैं। उस ग्रन्थ में पौराणिक बातें पृ० १-१७७ में हैं, बौद्ध पृ० १७८-२०७ में तथा जैन पृ० २०८-२३६ में। इतना ही नहीं, प्रत्युत एक नाम-तालिका भी अनुक्रमणिका (पृ० ३४०-४०१) में दी हुई है। ३७. द्वीपों के विषय में ऋषियों ने सूत से जो प्रश्न किये हैं, वे अधिकांश पुराणों में उल्लिखित हैं-- 'ऋषयः ऊचुः । कति द्वीपाः समुद्रा वा पर्वता वा कति प्रभो। कियन्ति चैव वर्षाणि तेषु नद्यश्च काः स्मृताः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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