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________________ विश्व-विद्या तुम्हारी स्तुति करने में संलग्न एवं शक्तिशाली अंगों एवं शरीरों को धारण करते हुए हम ईश्वर द्वारा स्थिर किये हुए (लम्बे) जीवन को भोगें (१००, ११६ या १२० वर्ष) ।२९ और भी देखिए ऋ० (७।६६।१६) । मनुस्मति ने मानव-जीवन के कई ध्येयों की ओर इंगित करने के उपरान्त अन्त में अपना निष्कर्ष उपस्थित किया है (२।२२४); उसके अनुसार सभी मनुष्यों के लिए तीन लक्ष्य (पुरुषार्थ) हैं-धर्म, अर्थ एवं काम; उसने निम्नलिखित शब्दों में समय से पहले ही संन्यास लेने की वृत्ति की भर्त्सना की है। (६।३६-३७)'शास्त्रों में व्यवस्थित वेदों के अध्ययन के उपरान्त, पुत्रों की उत्पत्ति एवं अपनी योग्यता के अनुसार यज्ञों के सम्पादन के उपरान्त व्यक्ति को मोक्ष में मन लगाना चाहिए; यदि व्यक्ति बिना इन कर्तव्यों को किये ही मोक्ष की कामना करता है तो वह नरक में गिरता है।' मनु ने इस बात पर बल दिया है कि व्यक्ति को संसार त्यागने अर्थात् संन्यास लेने के पूर्व अपने कर्तव्यों (तीनों ऋणों को चुकाना) का पालन अवश्य करना चाहिए (जैसा कि तै० सं० (६।३।१०।५) में उल्लिखित है) । स्त्री-पुरुष-सम्बन्धी जीवन तथा अन्य आनन्द जो सदाचार के विरोध में नहीं पड़ते, मनु एवं अन्य शास्त्रों द्वारा गर्हित नहीं ठहराये गये हैं और भगवद्गीता (७।११) में स्वयं भगवान् कृष्ण ने अपने को काम के समान माना है, जो साधुवृत्त अथवा सदाचार के विरोध में नहीं हो । सामान्य मानव-जीवन के तीन लक्ष्यों में कोई भी ऐसी बात नहीं है जो आश्चर्य की उत्पत्ति करे । गीता ने सक्रिय जीवन का गुणगान किया है, और स्वकर्तव्यपालन को पूजा ठहराया है (३।८, १६, २०, २५; ४।१८, १८१६५-६६)। चौथा लक्ष्य (पुरुषार्थ) अर्थात् मोक्ष प्रथम तीनों के विरोध में पड़ता है । जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन कर लेता है तो प्रथम ध्येय उसे मोक्ष प्राप्त करने के योग्य बनाते हैं। चौथा पुरुषार्थ (ध्येय) अर्थात् मोक्ष केवल थोड़े ही व्यक्तियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। उपनिषदों में जो सिद्धान्त प्रतिपादित है वह यह है कि आत्मा (जो प्रत्येक वस्तु में सत्ता रूप में विराजमान है) के विषय में सत्य ज्ञान की तैयारी के रूप में वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, तप एवं उपवास आवश्यक हैं (बृ० उप० ४।४।२२)। उपनिषदों में बहुधा ये शब्द "ब्रह्म वेद ब्रह्मव भवति" (यथा मुण्डकोपनिषद् ३।२६) आये हैं, जिनसे यह भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि केवल ब्रह्म का ज्ञान (ग्रन्थों या गुरु से प्राप्त) ही पर्याप्त है । 'विद्' (जानना) शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु उपनिषदों ने यह दृढतापूर्वक प्रतिपादित किया है कि अनुभूति होने के पूर्व अलिप्तता का जीवन, शान्ति, आत्म-निग्रह आदि का होना आवश्यक है। उद ब० उप० (४।४।२३) में याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा है-"अतः जो इसे जानता है, दुष्कर्म (पाप) उस पर विजय नहीं पाता, वह सभी पापों को जीत लेता है और इस प्रकार पापरहित हो जाता है, रज (कामनाओं) से दूर हो जाता है , संदेहरहित हो जाता है, वह सच्चे अर्थ में (सत्य) ब्राह्मण हो जाता है। यही ब्रह्म-लोक है । हे राजा, तुम उस लोक में पहुँचने योग्य बना दिये गये हो। ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा।" इस उक्ति में तीन अवस्थाओं पर बल दिया गया है, यथा--(१) ब्रह्म के विषय में (एवं विद्) शाब्दिक या मौखिक ज्ञान, (२) व्यक्ति शान्त एवं दान्त आदि हो जाता है, एवं (३) वह परम ब्रह्म से अपनी एवं संसार की अभिन्नता की अनुभूति कर लेता है । २६. भद्रं कर्णेभिः शणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिररडगस्तुष्टुवांसस्तनूभिव्यशेम देवहितं यदायुः॥ वाज० सं० (२५।२१)। १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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