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________________ धर्मशास्त्रका इतिहास है उसे जिसे वह मोक्ष कहता है और वह भी ऐसे साधनों द्वारा जो स्वयं अवास्तविक हैं (यथा उपनिषद् का अध्ययन), अत: मोक्ष स्वयं अवास्तविक है। किस प्रकार एक ही सत्ता बहुत हो जाती है और अपने को सतत परिवर्तनशील भौतिक लोक के रूप में अभिव्यक्त करती है, वास्तव में यह एक अव्याख्येय एवं दुर्बोध रहस्य है। किन्तु इससे हम लोग यह कहने का अधिकार नहीं पा जाते कि यह जगत् अवास्तविक या स्वप्न है। बहुत थोड़े से अत्यन्त उच्च दार्शनिक लोग ही ऐसा कह सकते हैं कि जो वास्तविक है वह है एक, परम, केवल एक, अन्य सब कुछ उस केवल का आभास या छाया मात्र है। सामान्य लोग ऐसा कह सकते हैं कि इन दार्शनिकों ने जो व्याख्याएँ उपस्थित की हैं वे उन्हें सन्तोष नहीं दे पातीं और उनकी समझ के बाहर की हैं। जब इस पर बल देना होता है कि संसार के पीछे क्या सत्ता है, तो उस पर ब्रह्म का उल्लेख किया जाता है। किन्तु जब उस एक सत्ता का अन्य आत्माओं एवं भौतिक संसार के सम्बन्ध में उल्लेख किया जाता है तो दैहिक ईश्वर की चर्चा हो उठती है । जब वेदान्तसूत्र (२।१।१४) यह कहता है कि यह लोक ब्रह्म से अन्वित (पृथक् नहीं) है, तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दोनों अभिन्न हैं। प्रत्युत उसका अर्थ यह है कि आत्माओं एवं लोक ब्रह्म से पूर्णतया भिन्न नहीं हैं। जब ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्म की नभति से मोक्ष की प्राप्ति होती है तो लोक के नाश का प्रश्न नहीं उठता, प्रत्युत बात यह है कि उस विषय में जो मिथ्या भावना या झुकाव है, वह दूर हो गया है या किसी सत्य भावना द्वारा हटा दिया गया रमित (सीमित या नियत) संसार किस प्रकार अपरिमित या असीम से उत्पन्न होता है, यह एक रहस्य है, जिसके लिए शंकराचार्य 'माया' शब्द का प्रयोग करते हैं। किन्तु वे इस विषय में असंदिग्ध हैं कि जब तक व्यक्ति एक आत्मा की अनुभूति करता है, सभी धार्मिक एवं सांसारिक जीवन-गतियाँ (वास्तविक या अवास्तविक) बिना किसी बाधा के चलती रहती हैं । शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित माया का सिद्धान्त वेदान्त न तत्त्वों में एक है जिन्हें लोगों ने अत्यन्त मिथ्यापूर्ण ढंग से समझा है । यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुत से दार्शनिक रुचि वाले हिन्दू इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करते कि यह जगत् मिथ्या है; अद्वैतवादी लोग जो कुछ कहते हैं वह यही है कि संसार वैसा वास्तविक नहीं है जैसा ब्रह्म है । शंकराचार्य ने अपनी स्थिति व्यक्त की है (वे० सू० २।१।१४) । उनका कहना है कि अपने विभिन्न अन्तर्भेदों के साथ यह संसार दीखता है, किन्तु इसका कोई अन्य आधार होना चाहिए, जहाँ यह अवस्थित हो सके; वही कोई अन्य आधार पर ब्रह्म है । दोनों का सम्बन्ध अव्याख्येय (जिसकी व्याख्या न की जा सके) है, इसीसे इसे माया कहते हैं। इस रीति से शंकराचार्य निरीश्वरवादी भी कहे जाते हैं , जब कि अन्य धार्मिक दार्शनिक विश्व एवं परमात्मा के सम्बन्ध में सामान्य रूप से मान्य एवं ताकिक सिद्धान्त को रखने में सिद्धान्तों की अयथार्थता या अपनी असहायता को स्वीकार करने को सन्नद्ध नहीं होते। विस्मृत करना चाहिए कि हमारे शास्त्रों के अनुसार मानव-जीवन के चार ध्येय (पुरुषार्थ ) हैं-धर्म (जो उचित या ठीक हो उसी को करने का नैतिक जीवन), अर्थ (सम्पत्ति एकत्र करने का जीवन या न्याय पर आधृत आर्थिक जीवन), काम (निर्दोष आनन्दों एवं उचित कामनाओं के उपभोग का जीवन) एवं मोक्ष (मुक्ति) । यह अन्तिम ध्येय (लक्ष्य) सर्वोत्तम है और यह बहुत ही थोड़े लोगों द्वारा प्राप्त किया जाता है। इसे परम पुरुषार्थ कहा जाता है । ऋग्वेद (११८६८) में भी ऋषि ने शारीरिक स्वास्थ्य, सुख एवं शत वर्षों के जीवन के लिए प्रार्थना की है—'हे देवगण, हम लोग कल्याण (भद्र) के शब्दों को सनने के योग्य हों (अर्थात् हम लोग मृत्यु तक बहरेपन से ग्रसित न हों), अपनी आँखों से सुन्दर दृश्यों को देखते रहें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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