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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् (१।२।१२-१३)३० में भी व्यवस्था है-'कर्मों द्वारा संगृहीत (उपलब्ध या प्राप्त किये हुए) लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण को इस प्रकार के निर्वेद में आना चाहिए कि क्रियाओं (जो अस्थिर हैं) द्वारा अविनाशी नहीं प्राप्त हो सकता; विशिष्ट रूप से उसको समझने के लिए उसे समिधा लेकर उस गुरु के पास पहुँचना चाहिए जो विद्वान् हो और पूर्णतया ब्रह्म में निवास करता हो; विज्ञ (गुरु) उसी के समक्ष ब्रह्मविद्या का उद्घोष करता है जो इस प्रकार उचित ढंग से (गुरु के पास) आता है, और जिसका मन शान्त है (अर्थात् अहंकार आदि से विचलित नहीं होता)। जिसका मन अब इन्द्रिय-विषयों के पीछे नहीं भागता, उसके द्वारा शिष्य उस अक्षर पुरुष को जानेगा।' यहाँ पर 'परीक्ष्य' शब्द यह प्रदर्शित करता है कि ब्रह्मविद्या की उपलब्धि केवल उसी को हो सकती है जो इन्द्रिय-सुखों से थक चुका हो, अर्थात् जिसमें अब संसार से विराग उत्पन्न हो गया हो। ऐसा आगे कहा गया है (कठोपनिषद् ६।१४ एवं बृह० उप० ४।४१७) कि जब व्यक्ति उन सभी वासनाओं से मुक्त हो जाता है जो मनुष्य के हृदय में चिपकी रहती हैं, तो वह अमर हो जाता है और इसी जीवन में ब्रह्म की उपलब्धि कर लेता है । 3 । और देखिए बृह० उप० (४।४।६) जहाँ उसके बारे में आया है जो कामना नहीं करता, जो कामना न करते हुए सभी कामनाओं से मुक्त है, जो इसकी अनुभूति करता है कि उसे केवल आत्मा की कामना है और इस प्रकार (इस कामना से) सारी कामनाओं की उपलब्धि कर लेता है , जीवनोच्छ्वास अन्य उच्च लोकों (स्वर्ग आदि) की ओर नहीं जाता, क्योंकि वह (वास्तव में) ब्रह्म हो जाने के कारण ब्रह्म में ही लीन हो जाता है कठोपनिषद् (२।२४) में आया है-'जिसने कदाचरण नहीं छोड़ा है, जिसका मन शान्त नहीं है, जो ध्यान नहीं लगाता, वह केवल ज्ञान की सहायता से आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकता।' उपनिषदों के सिद्धान्त के अनुसार ऐसा प्रतीत होता है, व्यक्ति जब सत्कर्म करता है तो उससे जो अच्छे फल हैं उन्हें भोगने के लिए वह नये जन्म प्राप्त करता जाता है और इस प्रकार मोक्ष विलम्बित हो जाता है । अत: संन्यासियों का कर्मों एवं फलों से पूर्ण विराग ले लेना आवश्यक माना गया है। जब तक देह जीवित है तब तक उसे सम्पत्ति, सन्तति एवं उच्चतर लोकों की कामनाएँ छोड़नी पड़ती हैं और भिक्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता है । संन्यासियों के लिए कोई अन्य आचार-संहिता यहाँ व्यवस्थित नहीं है, अतः यह मानना पड़ेगा कि उपनिषदों ने केवल यही शिक्षा संन्यासियों के लिए उपयुक्त ठहरायी है। अन्य वचनों से भी यही दृष्टिकोण झलकता है। ऐसा आया है कि मुक्त लोग सुकृत (सत्कर्म एवं उनके फल) एवं दुष्कृत (असत्कर्म एवं उनके फल) के ऊपर होते हैं। छान्दोग्योपनिषद् (८।४।१) ३२ में आया है--'यह आत्मा सेतु है जिससे ये लोक ३०. परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायानास्त्यकृतः कृतेन । तद्विज्ञानाथं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । तस्मै स विद्वानु पसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय । येनाक्षरं पुरुषं वेव सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्म विद्याम् ॥ मुण्डकोप० (११२।१२-१३); नाविरतो दुचिरतानाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमा नसो वापि प्रज्ञानेननमाप्नुयात् ॥ कठोप० (२०२४)। ३१. यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मोऽमतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ कठोप० (४।१४) एवं बृह० उप० (४४१७)। ३२. अथ य आत्मा स सेतुविधृतिरेषां लोकानामसम्भेदाय । नैनं सेतुमहोरात्रे तरतो न जरा न मृत्युनं शोको न सुकृतं न दुष्कृतम् । सर्वे पाप्मानो ऽतो निवर्तन्ते । अपहतपाप्मा ह्येष ब्रह्मलोकः। छा० उप० (८।४।१); स एष विसुकृतो विदुष्कृतो ब्रह्म विद्वान्ब्रह्मवाभिप्रेति । कौषी० उप० (१४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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