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भारत का तिहास से तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् से ऐसे वचन उद्धृत किये हैं जो यह अभिव्यक्त करते हैं कि ब्रह्म का तादात्म्य मछुवों एवं दासों, जुआरियों, पुरषों एवं नारियों, लड़कों एवं लड़कियों तथा लकड़ी के सहारे चलते हुए बूढों तक से है। यह विश्वास कि एक ही आत्मा सम्पूर्ण विश्व को, पाषाण, कीट-पतंगों, पशुओं से लेकर मनुष्य तक को अनुप्राणित करता है, एक ऐसी उन्मेषशाली धारणा है जो इस बात की ओर इंगित करती है कि सभी जीव भाई-भाई हैं और स्रष्टा की खोज कर रहे हैं। यह विश्वास साधारण विश्वास नहीं है। आज के विश्व में, जो अहंकार एवं स्वार्थभावना से परिपूर्ण है, जहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समृद्धि की उन्नति में लगा हुआ है, यह धारणा एवं विश्वास मधुर एवं सन्तोषप्रद है। देखिए डुइशेन कृत 'दि फिलॉसॉफी आव दि उपनिषद्स' (ए० एस ० गेडेन द्वारा अनूदित, १६०६, इडिनबरो में प्रकाशित) एवं जे० रॉयसकृत दि वल्डं एण्ड दि इण्डिविडुअल' (विशेषतः पृ० १५६-१५७)।
उपनिषदें सृष्टि एवं मूल तत्त्व के रूप से सम्बन्धित सिद्धान्तों से परिपूर्ण हैं। सृष्टि के विषय में कुछ वचन दिये जा रहे हैं। ब. उप० (१४१३-४,७) में सष्टि पर मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण वचन है, जिसका एक अंश यह है'आरम्म में पुरुष के रूप में केवल यही आत्मा था; उसे (अकेला होने के कारण) आनन्द न मिला; उसे एक अन्य (साथी) की कामना हुई; वह आलिंगन में बद्ध एक पुरुष एवं नारी के फैलाव में आ गया; उसने इसी आत्मा को दो भागों में अलग-अलग हो जाने दिया जो पति एवं पत्नी बन गये; इनसे मनुष्य उत्पन्न हुए और उस (पुरुष) ने चींटियों तक के छोटे-छोटे जीव उत्पन्न किये ; यह (विश्व) तब अविकसित (या अनावृत नहीं) था, तब यह नामों एवं रूपों में विकसित हुआ; वह (आत्मा) उसमें अँगुली के पोरों तक उस प्रकार प्रविष्ट हो गया, जिस प्रकार छुरा आवेष्टन (कोष) में छिपा रहता है या सबको आश्रय देने वाली (अग्नि) काष्ठ में नहीं दिखाई पड़ती।' इस वचन में सृष्टि-सम्बन्धी प्रचलित धारणा उठायी गयी है और वह एक वास्तविक तत्त्व आत्मा से सम्बन्धित रखी गयी है
और इस सिद्धान्त पर बल दिया गया है कि इस वस्तु-जगत् के मायाजाल में एक मात्र वास्तविकता आत्मा ही है। छा० उप० (७।१०११) में आया है--'यह पृथिवी, ये मध्य में स्थित क्षेत्र या स्थल, स्वर्ग , देव एवं मनुष्य , पशु एवं पक्षीगण, घास एवं ओषधियाँ तथा कीटों, पतंगों (तितलियों), चींटियों से संयुक्त अन्य पशु-कुछ नहीं हैं प्रत्युत वे अद्रव रूप में जल ही हैं।' छा० उप० (६।२।३-४ एवं ६।३।२-३) में आया है-'आरम्भ में केवल सत् ही था, केवल एक, जिसके साथ कोई दूसरा नहीं, उसने विचारा, 'मैं बहुत होऊँगा, मैं सन्तति प्राप्त करूँगा', उसने तेज उत्पन्न किया, तेज से जलों की उत्पत्ति हुई, जल से भोजन (अन्न); उस देवता ने संकल्प किया, 'मैं इन तीन देवों (अग्नि, जल एवं अन्न) में इस जीवित आत्मा के साथ प्रवेश करूँगा और नाम एवं रूप को अनावृत करूँगा (खोलंगा)।' यहाँ पर तीन तत्त्वों, तेज, जल एवं पृथिवी (अन्न की उत्पत्ति पौधों से होती है और पौधे पृथिवी से प्रस्फुटित होते हैं) की ओर इंगित है। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि केवल तीन ही तत्त्वों को स्वीकार किया गया था। वास्तव में ये तीनों अत्यन्त प्रकट एवं स्पष्ट थे, अन्य दो, यथा-वायु एवं आकाश को, जो एंत० उप० एवं त० उप० में उल्लिखित हैं, अन्तहित रूप में मान लेना होगा। ऐत. उप० (देखिए ऊपर पाद-टिप्पणी २०) में आया है-"आरम्भ में यहाँ पर केवल आत्मा था, कोई अन्य ऐसा नहीं था जो गतिशील हो (अर्थात् जो आँखें खोलता या बन्द करता हो); उसने विचारा, 'मैं लोकों की सृष्टि करूँगा।' उसने इन लोकों की रचना की, अम्भ (स्वर्ग के ऊपर जल), मरीचि ('किरणे) वायुमण्डीय क्षेत्र, मृत्यु, जल।" उपनिषद् और आगे कहती है-उसने लोकों के रक्षकों की रचना की और उनके लिए भोजन की आकांक्षा की। तब उसने विचारा-'यह ढाँचा (आवेष्टन) मुझसे पृथक् कैसे रह सकता है ? तब उसने पुनः सोचा-'मैं किस ढंग से या किस मार्ग से इसमें प्रवेश करूं?' इसके उपरान्त ऐसा आया है कि उसने सिर को खोला और उस द्वार से प्रविष्ट हो गया। तै० उप (२।६) में कथित है--"उसने (आत्मा ने) कामना की
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