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________________ विश्व-विद्या ३२५ 'मैं अधिक हो जाता, मैं सन्तति प्राप्त करना चाहता हूँ;' तप करके उसने यह (विश्व), जो कुछ है, उत्पन्न किया; इसे उत्पन्न करके वह इसी में प्रविष्ट हो गया।" उसमें (२७) पुन: आया है--'आरम्भ में यह 'असत्' (आवृत) था, इसके उपरान्त यह 'सत्' (व्यक्त या विकसित) हुआ, इसने अपने को अनावृत किया।' यही वेदान्तसूत्र (१।४।२६) का आधार है (आत्मकृतेः परिणामात्), जो यह स्थापित करता है कि ब्रह्म सृष्टि का कर्ता एवं कर्म दोनों है। इसी उपनिषद् (२।१) ने आत्मा से आकाश की, आकाश से वायु की, वायु से अग्नि की, अग्नि से जल की तथा जल से पृथिवी की रचना की बात कही है। यहाँ पर पाँच तत्त्वों का उल्लेख है न कि छान्दोग्योपनिषद् की भाँति केवल तीन का, जैसा कि अभी ऊपर निर्देश किया जा चुका है। ऐतरेयोपनिषद् (३।३) ने पाँच तत्त्वों के नाम लि हैं और उन्हें 'महाभूतानि' की संज्ञा दी है (यद्यपि वहाँ पर सामान्य क्रम नहीं रखा गया है)। प्रश्नोपनिषद् (६।४, श्वेताश्वतरोपनिषद् (२०१२), कठोपनिषद् (३।१५) ने भी पाँच तत्त्वों का उल्लेख किया है। कठोपनिषद् (३।१५) में पांच तत्त्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी) के नाम है और साथ-ही-साथ उनके विशिष्ट गुणों (क्रम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध) के नाम भी दिये गये हैं। हमने यह पहले ही देख लिया है कि भूत (जीव) ब्रह्म से निकलते हैं और उसी में समाहित हो जाते हैं (देखिए, ते० उप० ३।१, पाद-टिप्पणी २, एवं छा० उप० ३।१४।१, पाद-टिप्पणी ३) । प्रलय का क्रम सृष्टि का प्रतिलोम (उलटा) है। यह वेदान्तसूत्र (२।३।१४) में उल्लिखित है ('विपर्ययेण तु क्रमोऽत उपपद्यते च') । शंकराचार्य ने अपने भाष्य में इसके पक्ष में शान्तिपर्व का एक श्लोक उद्धत किया है। २२ इस महाग्रन्थ के खण्ड ३ के मूल पृष्ठ ८८५-८६६ में हमने युगों, महायुगों, मन्वन्तरों एवं कल्पों के विषय में पढ़ लिया है। खण्ड ५ के अध्याय १६ में भी (मूल पृ० ६८६-६६२) इस विषय में अध्ययन किया गया है । विश्व के विलयन को प्रलय कहा जाता है, जो चार प्रकार का होता है, यथा-नित्य (जो जन्म लेते हैं उनमें बहुतों का प्रतिदिन मरना), नैमित्तिक (जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है और विश्व का प्रलय हो जाता है), प्राकृतिक (जब प्रत्येक वस्तु प्रकृति में समाप्त हो जाती है) तथा आत्यन्तिक (मोक्ष, सत्य ज्ञान के उपरान्त जब आत्मा परमात्मा में समाहित हो जाता है ) । नैमित्तिक प्रलय ब्रह्मा के एक दिन के उपरान्त होता है और ब्रह्मा का एक दिन बराबर होता है १००० महायुगों के। प्राकृतिक प्रलय में प्रकृति के साथ प्रत्येक वस्तु परमात्मा में लीन हो जाती है। गीता (८1१७-१८) में आया है और मनु (११७३) में भी इसका उल्लेख है कि ब्रह्मा का एक दिन एक सहस्र युगों के बराबर होता है और ब्रह्मा की रात्रि की अवधि भी इतनी ही लम्बी होती है; यह भी आया है कि ब्रह्मा के दिन के आरम्भ में सभी व्यक्त वस्तुएँ अव्यक्त (मूल तत्त्व) से प्रस्फुटित होती हैं और ब्रह्मा की रात्रि के आगमन पर वे सभी उसी अव्यक्त में समा जाती हैं। प्रस्तुत लेखक अन्य धर्मों के शास्त्रों में पाये जाने वाले विश्व-विद्या-सम्बन्धी सिद्धान्तों के विवेचन में नहीं पड़ना चाहता; कुछ पाश्चात्य लेखकों के तत्सम्बन्धी ग्रन्थों की ओर इंगित कर देना ही पर्याप्त होगा । श्री रेने २२. स्मृतायप्युत्पत्तिक्रमविपर्ययेणेवाप्ययस्तत्र तत्र प्रदर्शितः--'जगत्प्रतिष्ठा देवर्षे पृथिव्यप्सु प्रलीयते । ज्योतिव्यापः प्रलीयन्ते ज्योतिर्यायौ प्रलीयते ॥ इत्यादौ । यह श्लोक शान्तिपर्व (३४०।२६-३२६२८) का है । अगले तीन श्लोक इस प्रकार हैं-खे वायुः प्रलयं याति मनस्याकाशमेव च । मनो हि परमं भूतं तदव्यक्ते प्रलीयते ॥ अव्यक्तं पुरुष ब्रह्मन् निष्क्रिये संप्रलीयते । नास्ति तस्मात्परतरं पुरुषाद्वै सनातनात् ॥ नित्यं हि नास्ति जगति भूतं स्थावरजंगमम् । ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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