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________________ विश्व-विद्या तत्त्वों के विषय में बृ० उप० (३।७।२-२३) में एक लम्बी उक्ति आयी है २०, जिसमें याज्ञवल्क्य ने उद्दालक आरुणि से एक अति उत्कृष्ट सिद्धान्त कहा है। यथा-यह आत्मा पृथिवी तथा अन्य तत्त्वों में निवास करता पाया जाता है, जिसे वे (तत्त्व) नहीं जानते, जिसकी (आत्मा की) देह पृथिवी एवं तत्त्व हैं, जो पृथिवी के अन्तर एवं अन्यों द्वारा शासन करता है, यह आत्मा तुम्हारा (मेरा एवं अन्यों का) है, आन्तरिक शासक है और अमर है। इस उक्ति का अन्तिम अंश यों है-'आन्तरिक शासक अदृष्ट है, किन्तु देखता रहता है, अश्रुत है किन्तु सुनता रहता है, अमत ( अप्रत्यक्ष ) है किन्तु प्रत्यक्षीकरण करता रहता है, अज्ञात (अविज्ञात) है किन्तु जानता रहता है, उसके अतिरिक्त कोई अन्य देखने वाला (द्रष्टा) नहीं है, उसके अतिरिक्त कोई अन्य सुननेवाला (श्रोता) नहीं है , उसके अतिरिक्त कोई अन्य परिज्ञान या प्रत्यक्षीकरण करने वाला (मन्ता) नहीं है। उसके अतिरिक्त कोई अन्य जानने वाला (विज्ञाता) नहीं है । यही आत्मा, अन्तर्यामी एवं अमृत (अमर) है। अन्य कछ क्लेश (आर्तम् ) है।' यह सम्पूर्ण भाग, जिसे अन्तर्यामी ब्राह्मण कहा जाता है, व. उप० (२१५) में वणित मधुविद्या के समान ही है। स्रष्टा के रूप में ब्रह्म-सम्बन्धी सामान्य धारणा का उपनिषदों के चिन्तकों द्वारा सम्पूर्ण त्याग नहीं किया गया, यद्यपि ऐसा घोषित किया गया कि ऐसी धारणा अविद्या (वास्तविक तत्त्व के प्रति अज्ञान) के कारण है। स्रष्टा के रूप में अवधारित ब्रह्म ईश्वर (देह वाला ईश्वर या भगवान्) कहलाया, यद्यपि पूजक को यह अवश्य ज्ञात होना चाहिए कि ब्रह्म सारतत्व रूप में व्यक्तित्व (शारीरिक रूपत्व) की दशाओं एवं सीमाओं से ऊपर है। यही ईश्वरवाद या आस्तिस्यवाद है जो तीन अस्तित्वों को स्वीकार करता है-वास्तविक विश्व, परमात्मा (सृष्टि करने वाला आत्मा) एवं आत्मा (जीव) जो परमात्मा पर अवलम्बित है । किन्तु उपनिषदों का वास्तविक चिन्तन ब्रह्म एवं आत्मा तथा भौतिक विश्व की अन्तरहीनता में केन्द्रित है, अर्थात् इन तीनों में तादात्म्य है। यह विचार (चिन्तना) कि ब्रह्म विभिन्न आत्माओं एवं भौतिक विश्व में प्रविष्ट हो गया, देदान्त का तीसरा स्वरूप है । वेदान्तसूत्र (२।३१४३) की व्याख्या में शंकराचार्य ने अथर्ववेद वाले ब्रह्मसूक्त२१ २०. यः पथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अखरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याभ्यमृतः । . . . अदृष्टो द्रष्याऽश्रुतः श्रोताऽमतो मन्ताऽविज्ञातो. विज्ञाता । ... एव त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः । अतोऽन्यदातम् । वृह उप० (३३७१३ एवं २३)। पिलाइए इस अन्तिम से बृह० उच (३।४१२) 'कतमो याज्ञघल्वय सन्तिरः। न दृष्टेप्टारं पदयः.. एष त आत्मा सन्तिरः । अतोन्पदालम्' ; एवं ३३।२। ऐत० उप० (३२) में १७ शब्द ऐसे हैं जो प्रधान (अर्थाः दाहा) के नाम कहे गये हैं। ऐत० उप० (३.३) यों है-'एष ब्रह्मा, एष इन्द्रः, एष प्रजापतिः, एते सर्वे देवाः, इमानि च पञ्च महाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतीषि, एतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव बीजानीराणि चेतराणि चाण्ड जानि च जरायुजानि स्वेदजानि चोभिज्जानि चाश्वा गाव: पुर यत्किंचे प्राणि जंगमं च पतत्रि च यच्च स्थावर सर्व तत्पशाने प्रशाने प्रतिष्ठितम । प्रज्ञानेत्री लोकः। प्रज्ञा प्रतिष्ठा। प्रज्ञानं ब्रह्म।' यह पुरुषसपत (१०६०।६, ८, १०) वाले विचार का मानो तार्किक निष्कर्ष है। २१. एके शाखिनो दाशक्तिदादिभावं ब्रहण आमनन्त्यापर्वणिका ग्रह्मसूक्ते ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मवेमे इत्यादिना।...इति होगजन्लूदाहरणेन सर्वेषामेकनामस्पकृतकार्यकरणहंघातप्रविष्टानां जीवानां ब्रह्मत्वमाह । तथान्यत्रापि ब्रह्म प्रक्रियायामेवायमर्थः प्रपञ्च्यते । त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्यं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो नवसि विश्वतोमुखः॥ इति । यह अन्तिम अथर्व० (१०८।२०) एवं श्वे. उप० (४॥३) में है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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