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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ऐतरेय ब्राह्मण में आया है कि प्रजापति ने अपने को बढ़ाने ( विस्तृत करने) और अधिक होने के लिए तप करने के उपरान्त तीन लोकों की रचना की, यथा- पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग, जिनसे तीन ज्योतियाँ प्रकट हुई--अग्नि, वायु एवं आदित्य, जिनसे तीन वेदों की उत्पन्न हुई. आदि-आदि । वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणों से यह प्रकट होता है कि आत्मा के विषय में सामान्य प्रचलित विश्वास यह था कि अच्छे कर्मों के कारण वह स्वर्ग में पहुँचता है, अमर हो जाता है और भाँति-भाँति के आनन्दों एवं सुखों का उपभोग करता है । देखिए ऋ० (६१ ११३७ - ११, १/१२५५४-६), अथर्व ० ( ४ । ३४ । २ एवं ५, ६।१२०१३) । एक व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्ति के प्रति कृत दुष्कर्मों एवं हानिप्रद कर्मों के प्रतिकार एवं निष्कृति की धारणा उन दिनों विद्यमान थी । उदाहरणार्थ, शतपथब्राह्मण ( १२|६|१|१) में आया है— 'व्यक्ति जो कुछ इस लोक में खाता है, उस वस्तु द्वारा वह दूसरे लोक में स्वयं खाया जाता है ।' और देखिए शत० ब्रा० ( ११।६।१) | किन्तु जब हम उपनिषदों के युग में पहुँचते हैं तो सम्पूर्ण बौद्धिक वातावरण ही परिवर्तित दृष्टिगोचर होता है । उपनिषदें बहुधा कहती हैं कि केवल आत्मा ही वास्तविक (तत्व) है, अन्य कुछ नहीं और आत्मा को ही हम इस प्रकार उल्लिखित कर सकते हैं (अथवा उसकी चर्चा कर सकते हैं ) - 'नेति नेति' ( अर्थात् यह नहीं - यह नहीं ), अर्थात् आत्मा को नहीं जाना जा सकता। यही वेदान्त का प्रथम एवं प्रमुख स्वरूप है । किन्तु इस उच्च आध्यात्मिक धारणा एवं सामान्य लोगों के विचारों के बीच संघर्ष उपस्थित हो गया और सामान्य लोगों ने यही समझा कि वास्तविक विश्व स्रष्टा से पृथक अवस्थित है। अपेक्षाकृत अधिक उच्च दार्शनिक मनस्वियों ने सामान्य लोगों के लिए विश्व की वास्तविकता की बात मान ली । वे यह कहने को सन्नद्ध थे कि विश्व का अस्तित्व होता है; किन्तु वस्तुतः वह कुछ नहीं है, बल्कि विश्व में आत्मा समाया हुआ है। उपनिषदों ने यह बताया कि यह विश्व दृग्विषय है अथवा गोचर होने वाला है, मिथ्या नहीं है और न 'न कुछ' है, किन्तु विश्व के पीछे आत्मा है । यह वेदान्त का द्वितीय स्वरूप है, अर्थात् वेदान्त के अनुसार विश्व मूल तत्त्व ब्रह्म से विकसित हुआ है । उपनिषदों ने सगुण ब्रह्म एवं निर्गुण ब्रह्म में अन्तर बताया, सगुण ब्रह्म में प्रार्थना, उपासना तथा व्यवहार का स्थान है । अपेक्षाकृत अधिक उच्च चिन्तन ने यह भी दृढतापूर्वक कहा कि पारमार्थिक सत्य यह है कि ब्रह्म एक है, विश्व में प्रत्येक वस्तु ( यथा -- मनुष्य, पशु, निर्जीव पदार्थ) ब्रह्म है ( 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', छा० उप० ३ १४ ११, अहं ब्रह्मास्मीति तस्मात् तत्सर्वमभवत्' बृ० उप० १।४।१० ) । ऐतरेयोपनिषद् ने अति दृढतापूर्वक कहा है कि मूल तत्त्व से मनुष्यों, पशुओं, अचल जीवों का तादात्म्य है । १९ ३२९ ( इतनी सृष्टियों पर छा गया हो) ।' सम्भवतः इसी कारण 'कस्मै' (जो प्रथम ६ मन्त्रों में पाया जाता है) से प्रजापति को 'क' कहा जाने लगा । १६. आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसोन्नान्यत्किंचन मिषत् । स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति । स इमाँल्लोकानसृजताम्भो मरीचीर्मरमापः । स ईक्षत इमे नु लोकाः । लोकपालान्नु सृजा इति । सो अद्द्भ्य एव पुरुषं समुद्ध, त्यामूर्च्छयत् । . . . स ईक्षत कथं न्विदं महते स्यादिति । स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति । स एतमेव सीनानं विदार्यतया द्वारा प्रापद्यत । ऐ० उप० (१1१-३, १1३।११-१२ ) । यह वचन वे० सू० ( ३।३।१६ ) में विवेचित हुआ है, वहां ऐसी स्थापना है कि 'आत्मा' शब्द 'परमात्मा' के लिए तथा 'अम्भ', 'मरीची', 'मर' एवं 'आप' क्रम से स्वर्ग, अन्तरिक्ष, पृथिवी एवं पृथिवी के नीचे जल के लिए प्रयुक्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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