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विश्व-विद्या
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का १०२, जिसमें ३३ मन्त्र हैं, ब्रह्मप्रकाशन सूक्त कहा जाता है । एक से उन्नीस मन्त्रों तक बहुत-से प्रश्न पूछे गये हैं । २०, २२ एवं २४वें मन्त्रों में प्रश्न पूछे गये हैं और २१, २३ एवं २५वें में उत्तर दिये गये हैं । एक प्रश्न एवं एक उत्तर यहाँ उपस्थित किया जा रहा है- ' किसके द्वारा पृथिवी बनायी गयी (या व्यवस्थित हुई ) ? किसके द्वारा यह ऊँचा स्वर्ग रखा गया ? किसके द्वारा आकाश ऊपर व्यस्त रेखा द्वय रूप में एवं विभिन्न दिशाओं में रखा गया ?' 'ब्रह्म ने पृथिवी बनायी, ब्रह्म ही स्वर्ग है जो ऊपर रखा हुआ है, यही ब्रह्म आकाश है जो ऊपर, एक-दूसरे को काटती हुई दो रेखाओं के रूप में एवं विभिन्न दिशाओं में है ।' अथर्ववेद (१०1८) का मन्त्र २७ श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ४ | ३ ) के समान ही है, जिसमें स्रष्टा को युवा एवं बूढ़े, पुरुष एवं नारी तथा लड़का एवं लड़की के अनुरूप कहा गया है । अथर्ववेद ( १०1८) में कतिपय अन्य देवों का उल्लेख है, किन्तु उन्हें परम तत्त्व में समाहित माना गया । अथर्ववेद (६२, इसमें २५ मन्त्र हैं) में काम को देवतातुल्य माना गया है; प्रथम १८ में शत्रुओं को भगाने के लिए काम की स्तुति की गयी है, और १६ से २४ तक के सभी मन्त्रों के अन्तिम चरण में 'तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि' (हे काम, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ) आया है। इन ६ मन्त्रों में ऐसी घोषणा है कि काम सर्वप्रथम प्रकट हुआ, वह स्वर्ग, पृथिवी, जलों, अग्नि, दिशाओं, सभी पलक गिराने वाले प्राणियों और समुद्र से बड़ा है, काम के पास न तो देवगण, न पितर लोग और न मनुष्य ही पहुँच सके, दात, अग्नि, सूर्य एवं चन्द्र काम के पास नहीं पहुँचते । अथर्ववेद के १६५० नामक सूक्त में काम को ५ मन्त्र सम्बोधित हैं, और काम को आरम्भ में उत्पन्न होने वाला कहा गया है। तथा यह भी कि वह मन का प्रथम प्रवाह था । १५
अथर्ववेद में (११।४, कुल २६ मन्त्र ) 'प्राण' को सम्बोधित किया गया है गया है । प्रथम मन्त्र इस प्रकार है--' उस प्राण को प्रणाम, जिसके शासन के वह सबका स्वामी है और उसमें सभी कुछ स्थापित है ।' मन्त्र १२ में ऐसा प्राण ही निर्देशन करने वाली शक्ति है, प्राण की सब उपासना करते हैं, प्राण है और वे (ऋषि) उसे प्रजापति कहते हैं ।'
और उसे सर्वशक्तिमान् माना अन्तर्गत यह सब (विश्व) है; आया है- 'प्राण विराट है, वास्तव में सूर्य एवं चन्द्रमा
१६ काण्ड के सूक्त ५३ एवं ५४ में अथर्ववेद ने काल को मूल तत्त्व (फर्स्ट प्रिंसिपल ) कहा है, ऐसा प्रतीत होता है। तीन मन्त्रों का अनुवाद इस प्रकार है- 'तप काल में अवस्थित है, काल में ही ज्येष्ठ
बेवा अङ्ग सर्वे समाहिताः। स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ अथर्ववेद (१०/७७७, ८, १३); केलेयं भूमिविहिता केन चौरसरा हिता । केनेदमूर्ध्वं तिर्यक् चान्तरिक्षं व्यचो हितम् ॥ ब्रह्मणा भूमिविहिता ब्रह्म धौरुत्तरा हिता । ब्रह्मवमूर्ध्वं तिर्यक्चान्तरिक्षं व्यचो हितम् ॥ अथर्ववेद ( १०।२।२४-२५) ।
१५. कामस्त समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् । स कामः कामेन बृहता सुयोनी रायस्पोषं यजमानाय हि ॥ अथर्ववेद ( १६ ५२०१) । 'मनसो रेतः' के लिए मिलाइए ऋ० (१०।१२६/४), जो ऊपर पाद-टिप्पणी १० में उद्धृत है । प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे । यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् । प्राणो विराट् प्राणो बेष्ट्री प्राणं सर्व उपासते । प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापतिम् ॥ अथर्ववेद ( ११ |४| १ एवं १२ ) ; काले तपः काले ज्येष्ठं काले ब्रह्म समाहितम् । कालो ह सर्वस्येश्वरो यः पितासीत्प्रजापतेः ॥ कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम् । स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत । अथर्व ० ( १६ | ५३८ एवं १० ); कालावापः समभवन् कालाबू ब्रह्म तपो विशः । कालेनोवेति सूर्यः काले नि विशते पुनः ॥ अथर्व ० ( १६२५४११) ।
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