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धर्मशास्त्र का इतिहास ब्रह्म है; काल सबका ईश्वर है, वही प्रजापति का पिता है ; काल ने प्रजा को सृष्टि की , आरम्भ में काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया; स्वयम्भू (ब्रह्मा), कश्यप एवं तप काल से ही उद्भूत हुए; काल से जल, ब्रह्म, तप एवं दिशाएं उत्पन्न हुई; काल के कारण सूर्योदय होता है और वह उसी में (रात्रि में) समा जाता है।'
शतपथ ब्राह्मण ने कतिपय स्थानों पर सृष्टि के विषय में कहा है। इसमें (६३११) आया है-'यहाँ पर आरम्भ में असत् था', पुनः दृढतापूर्वक कहा है कि असत् ही ऋषि था, और प्राण-वायु था; इसके उपरान्त कल्पना की गयी है कि जिन्होंने कामना की,-'मैं और हो जाऊँ, मेरी सन्तानें हों । उन्होंने परिश्रम किया और थक जाने पर उन्होंने सर्वप्रथम 'ब्रह्म' एवं तीन विद्याएँ (तीनों वेद) उत्पन्न कीं; उन प्रजापति ने वाक् (जो विश्व है) से जल उत्पन्न किया; वे (प्रजापति) तीनों वेदों के साथ जल में प्रविष्ट हो गमे और तब उसमें से हिरण्यगर्भ (सोने का अण्ड) निकला; उन्होंने उसका स्पर्श किया, तब पृथिवी उत्पन्न हुई. . ..'
शतपथब्राह्मण (११।१।६।१) में आया है-'आरम्भ में यह जल था, केवल एक समुद्र । जलों ने कामना की हमें सन्तति की प्राप्ति कैसे होगी ? 'उन्होंने परिश्रम किया, तप किये; जब वे ऐसा कर रहे थे तो हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई, जो लगभग एक वर्ष तक तैरता रहा, एक वर्ष की अवधि में एक पुरुष, प्रजापति उपन्न हुए; उन्होंने वह अण्ड फोड़ा, उन्होंने अपने मुख (की सांस) से देवों की सृष्टि की; उन्होंने अग्नि, इन्द्र, सोम की उत्पन्नि की' . . .आदि-आदि ।
शतपथ ब्राह्मण (११।२।३।१२) में पुनः आया है-'आरम्भ में यह (विश्व) ब्रह्म था, इसने देवों, अग्नि, वायु, सूर्य की रचना की'; इसके उपरान्त नाम-रूप की ओर संकेत मिलता है जिसके द्वारा वह लोकों में उतरता है और ऐसा कहा गया है-'ये दोनों (नाम-रूप) ब्रह्म की बड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।'
हिरण्यगर्भ वाली अनुश्रुति ऋग्वेद (१०।१२६।३ एवं १०।१२१।१ हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे) से छान्दोग्य:(३।१६।१-२) में विकसित हुई है--'आरम्भ में यह विश्व असत् (आवृत)था, यह सत् हुआ (अनावृत होने लगा), इसने जन्म लिया (इसने रूप धारण किया); तब एक अण्ड बना, दो अर्धाशों में एक चाँदी का था और दूसरा सोने का; चाँदी वाला अर्धांश यह पृथिवी है और सोने वाला स्वर्ग है ।' यही मनुस्मृति में भी आया है, जिसका उल्लेख हम आगे करेंगे ।
शतपथ ब्राह्मण (१०।४।२।२२-२३) में कहा गया है कि प्रजापति ने ऋग्वेद को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि इसके अक्षरों की संख्या १२,००० बृहती मात्राओं (प्रत्येक बृहती में ३६ अक्षर होते हैं) में हो गयी।
तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है-'प्रजापति ने देवों एवं असुरों की सृष्टि की (२।२।३), किन्तु उन्होंने इन्द्र को नहीं बनाया; देवों ने उनसे कहा-'हमारे लिए इन्द्र की उत्पत्ति करें'; जिस प्रकार हमने तप से आप को उत्पन्न किया उसी प्रकार आप इन्द्र को उत्पन्न करें; उन्होंने तप किया और इन्द्र को अपने में (अपने हृदय में निवास करते) देखा, उन्होंने कहा 'उत्पन्न हो जाइए' ।' ते० प्रा० (२।२६।१) में आया है'६-'आरम्भ में यह विश्व कुछ भी नहीं था। न स्वर्ग था, न पृथिवी और न अन्तरिक्ष। उस असत् ने
१६. इदं वा अग्रे नैव किंचनासीत् । न धौरासीत् । न पृथिवी। नान्तरिक्षम । तदसदेव सन् मनोऽकुरुत स्यामिति (ते० प्रा० (२।२।६१) । ब्रह्म देवानजनयत्, ब्रह्म विश्वमिदं जगत् । ब्रह्मणा क्षत्रं निर्मितम् । ब्रह्म ब्राह्मणा आत्मना। अन्तरस्मिन्निमे लोकाः । ब्रह्मैव भूतानां ज्येष्ठम् । तेन कोर्हति स्पधितुम् । ब्रह्मदेवास्त्रयस्त्रिंशत् । ब्रह्मभिन्न प्रजापती। ब्रह्मन्ह विश्वा भूतानि । नावीवान्तः समाहिता ॥ते. बा० (२२८८६-१०)।
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