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वशाल का इतिहास ऋ० (१॥३५॥६) में ऐसा आया है--'तीन द्यो' हैं (अर्थात् स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथिवी); शे (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथिवी) सविता की गोद में हैं और एक (अर्थात् अन्तरिक्ष) यमलोक में है। ऋषि ने ऋ० (१०॥ ८५।१५) में व्याख्या की है--'मैंने दो मार्गों के विषय में सुना है, यथा-पितरों एवं देवों का मार्ग तथा मनष्यों का भी; सम्पूर्ण लोक जो घूमता है उस (क्षेत्र) में पहुँचता है जो पिता (स्वर्ग) एवं माता (पृथिवी) के बीच में है।'
वरुण के बारे में कहा गया है कि उसने अन्तरिक्ष को वनों पर , सूर्य को स्वग पर तथा सोम को पर्वतों पर बिछा (फैला) दिया (ऋ० ५।८५२) । ऋग्वेद के काल में भी स्वर्ग एवं पृथिवी के बीच की दूरी के विषय में कल्पना आरम्भ हो गयी थी। ऋ० (१११५५१५) में कवि का वचन है कि विष्णु के तीस पद (अर्थात् स्वर्ग) तक पहुँचने का साहस कोई नहीं करता, यहाँ तक कि पक्षी भी, जो पंखों पर उड़ते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण (७।७।या २ १७) में पृथिवी एवं सूर्य के बीच की दूरी एक अश्व के लिए एक सहस्र दिनों की कही गयी है।
तैत्तिरीय संहिता में प्रजापति को बहुधा देवों एवं असुरों (३।३।७ १) की सृष्टि करते हुए, यज्ञों (११६६१) का निर्माण करते हुए, मनुष्यों (२।१।२१) को बनाते हुए, पशुओं (१।५६७) की रचना करते हए तथा प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा करते हए और उसके लिए तय करते हए (३१०१०१) उल्लिखित किया गया है । उसमें (५।६।४।२) आया है कि यह सब आरम्भ में जल था, एक समुद्र--और प्रजापति वायु बनकर कमलदल पर क्षिप्र गति से तैर रहे थे ।
सष्टि पर अथर्ववेद में भी कछ सक्त आये हैं। किन्तु वे वाम्बहल हैं, पुनरुक्तियों से परिपूर्ण हैं और उनमें उपर्युक्त ऋग्वेदीय गम्भीरता, दार्शनिकता एवं संक्षिप्तता नहीं पायी जाती । १० काण्ड के ७वें एवं ८३ सूक्तों में इसने स्कम्भ को आधार रूप में रखा है और उसे प्रजापति के अनुरूप समझा है और सभी लोकों के स्रप्टा एवं आश्रयदाता के रूप में उल्लिखित किया है, जिसमें सभी ३३ देव पाये जाते हैं ; इसने पूछा है-'परम उच्च, परम नीच एवं मध्यम प्रकारों में, जिन्हें प्रजापति ने रचा, स्कम्भ ने कितना प्रवेश किया; वह कितना है जिसमें वह (स्कम्भ) नहीं पहुँचा?' ऋ० (८६।४६) में यज्ञ के लिए निर्मित सोम को स्कम्भ कहा गया है। अथर्ववेद के १०वें काण्ड के ८वें सूक्त को ज्येष्ट-ब्रह्म (परम या सबसे बड़े ब्रह्म) वाला सक्त कहा गया है । इससे दो मन्त्र उद्धृत किये जा रहे हैं-'उस ज्येष्ठ ब्रह्म को प्रणाम जो सब पर, चाहे वह उत्पन्न हो चुका है या उत्पन्न होने वाला है, शासन करता है, और स्वर्ग उसी का, केवल उसी का है। ये दोनों, स्वर्ग एवं पृथिवी स्कम्भ द्वारा सँभाले गये हैं; यह सब जो आत्मा वाला है, जो सांस लेता है एवं पलक गिराता-उठाता है, वह स्कम्भ है।' स्कम्भ का शाब्दिक अर्थ है 'आश्रय' या 'स्तम्भ' (खम्भा) । इसका क्रियारूप 'स्कम्नाति ऋ० (१०।६।३) में आया है और 'स्कम्भ' शब्द भी कई बार आया है, किन्तु स्रष्टा या निर्माता के रूप में नहीं । और देखिए अथर्ववेद (१०८।२ एवं १०1७, जिसमें ४४ मन्त्र हैं)।४ अथर्ववेद
१३. सहलमनूयं स्वर्गकामस्य सहस्रावीने का इतः स्वर्गो लोकः । ऐ० ब्रा० (७ वा अ०, ७वा खण्ड या द्वितीय पञ्चिका १७) ।
१४. यस्मिन् स्तब्ध्वा प्रजापतिर्लोकान्सर्वान् अधारयत् । स्कम्भं तं हि कतमः स्विदेव सः ॥ यत्परमवम पच्च मध्ममं प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम् । कियता स्कम्भः प्रविवेश तत्र यन्न प्राविशत्कियत्तद् बभूव ॥ यस्य त्रयस्त्रिशद
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