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________________ विश्व-विद्या सम्मिलित कर लिया गया है। ऋ० (१०।१२१११) ने घोषित किया है कि आरम्भ में हिरण्यगर्भ (सोने के एक अण्ड) की उत्पत्ति हुई; और १०वें मन्त्र में उसकी तुलना प्रजापति से की गयी है तथा ८वें एवं १०वें मन्त्र घोषित करते हैं कि उसके द्वारा जलों की उत्पत्ति हई जिनसे हिरण्यगर्भ (सोने का अण्ड) निष्पन्न हआ, जो स्वयं प्रजापति था। ऋग्वेद का १०।१२५ सूक्त वाक् के मुख से कहा गया है जिसमें वाक् को शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जो देवों से भी ऊँची है और निर्माण करने वाली है । आठ मन्त्रों में तीन का अनुवाद नीचे दिया जाता है-'मैं रुद्रों एवं वसुओं तथा आदित्यों एवं विश्वदेवों के साथ घूमती हूँ; मैं दोनों मित्र एवं वरुण, इन्द्र एवं अग्नि तथा दोनों अश्विनों को आश्रय देती हूँ। मैं रुद्र का धनु ब्रह्म (पवित्र स्तुति) से घृणा करने वाले शत्रु को मारने के लिए तानती हूँ। मैं मनुष्यों में युद्ध भड़काती हूँ। मैंने द्यावा (स्वर्ग) एवं पृथिवी में प्रवेश किया। मैं सभी लोकों को उत्पन्न करती हुई वायु के समान चलती हूँ। मैं द्यावा (स्वर्ग) के ऊपर हूँ एवं पृथिवी के ऊपर हूँ। अपनी महत्ता (शक्ति) से मैं ऐसी हो सकी हूँ।' यह कहा जा सकता है कि ऋषि ने यहाँ केवल सामान्य वाणी या भाषा की ही ओर संकेत नहीं किया है, प्रत्युत उस धारणा की ओर संकेत किया है जिसके अनुसार यह कहा जा सकता है कि शब्द में निर्माणात्मक शक्ति है और वह ईश्वर के साथ एक है या ब्रह्म द्वारा उच्चरित विचार है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल का १२६ वाँ सूक्त (जो आरम्भिक शब्दों के कारण 'नासदीय सूक्त' कहलाता है) एक विलक्षण सूक्त है। इसके बहुत-से मन्त्र अब भी निगूढ़ एवं क्लिष्ट हैं, जिनका अर्थ निकालने में प्रसिद्ध विद्वानों के दांत खट्टे हो गये हैं।'' इस सूक्त में मूल तत्त्व (बीज तत्त्व या 'फर्स्ट प्रिंसिपल') को कोई संज्ञा नहीं दी गयी ६. हिरण्यगर्भः समवर्तताने भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । ऋ० (१०।१२१११) । तै० सं० (२५॥१२) में आया है : 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे इत्याधारमाधारयति प्रजापति हिरण्यगर्भः प्रजापतेरनु रूपत्वाय।' य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः । यस्य छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ऋ० (१०. १२१०२) : 'वह जीवन एवं बल देता है, जिसकी आज्ञाएं सभी देवों द्वारा सम्मानित होती हैं, जिसकी छाया अमरता है और मृत्यु भी; यह कौन देव है जिसकी पूजा हम अन्य आहुतियों से करते हैं (या हम किस देव को हवियों के साथ पूजा दें ?)। १०. नासदासीनो सदासीत्तदानों नासीद्रसो नो व्योमा परो यत् । किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ न मृत्युरासीदमृतं न तहि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं च नास ॥ तम आसीत्तमसा गुलू हमनेप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।... कामस्तदग्ने समवर्तताधि मनसो रेताः प्रथमं यदासीत् ।... को श्रद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।... इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥ ऋ० (१०।१२६३१-७) शतपथब्राह्मण (१०१५।३।१-२) ने इस सूक्त की ओर एक मनोरम संकेत किया है-नेव वा इदमग्रेऽसदासीनेव) सदा सीत् । आसीदिव वा इवमने नेवासीत्तद्ध तन्मन एवास । तस्मादेतदृषिणाभ्यनूक्तम् । नासदासीनो सदासीत्तदानीमिति नेव हि सन्मनो नेवासत् तदिदं मनः सृष्टमाविरबुभूषत् । इस ब्राह्मण ने यह स्पष्ट किया है कि यह (विश्व) न तो पहले असत् था और न सत् और इसने आगे कहा है-'प्रारम्भ में यह (विश्व), जैसा कि इसका अस्तित्व था, नहीं था। उस समय केवल मन था और वह मन मानो न तो सत् था और न असत् ।' यह द्रिष्यव्य है कि भागवतपुराण (२।६।३२-३६) ने भगवान् के विषय कहा है कि वे गुह्य सत्य की ओर संकेत करते हैं । इसका ३२वाँ श्लोक ऋग्वेद (१३१२६३१) का स्मरण दिलाता है-'अहमेवासमेवाने नान्यद्यत्सदसत्परम् । पश्चादहं यदेतच्च योवशिष्येत सोस्म्यहम् ।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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