SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास खित किये जायेंगे। १०७२ का प्रमुख प्रयोजन है, 'आठ आदित्यों के जन्म का उल्लेख करना।' ऋ० (१०७२।२) में आया है कि ब्रह्मणस्युति ने शिल्पी (जो भाथी से काम करता है, यथा लोहकार) की भाँति देवों को जन्म दिया और देवों के पूर्व कालों में असत् से सत् की उत्पत्ति हुई।' ऋ० (१०।७२।४-५ एवं ८) में ऐसा आया है कि दक्ष की उत्पत्ति अदिति से हुई और अदिति की दक्ष से, और देव उस (अदिति) से उत्पन्न हुये और अदिति से आठ पुत्र उत्पन्न हुए । १०८१ एवं ८२ नामक दो सूत्र विश्वकर्मा की चर्चा करते हैं, जिसने लोगों की सृष्टि की। १०।८११२ एवं ४ में प्रश्न आये हैं : 'आधार (जिससे उसने विश्व रचा) क्या था? सामग्री (जिससे उसने पृथिवी बनायी) क्या थी? वह वन एवं वृक्ष क्या था जिससे स्वर्ग एवं पृथिवी का तक्षण हुआ?' तीसरे श्लोक में एक ईश्वर का वर्णन यों है : 'वह एक ईश्वर जो चारों ओर देखता है, जिसका मुख सभी दिशाओं में घुमा हुआ है, जिसके हाथ एवं पर सभी स्थानों में हैं, जो स्वर्ग एवं पृथिवी को बनाते हुए अपने (दोनों) हाथों से उसी प्रकार आगे भेजते हैं, जिस प्रकार भाथियों एवं पंखों से भेजा जाता है (जिस प्रकार एक पक्षी संचारित होता है या आगे बढ़ाया जाता है)।' ऋग्वेद का यह स्तोत्र (१०६०, जिसमें १६ श्लोक हैं) बहुत प्रसिद्ध है और पुरुषसूक्त कहलाता है । इसमें सहस्रों शिरों, नेत्रों एवं पैरों वाले पुरुष (जिसे सायण ने आदि पुरुष कहा है) के रूप में परम स्रष्टा की कल्पना की गयी है और कहा गया है कि जो कुछ अस्तित्व में आ चुका है और जो कुछ आने वाला है वह पुरुष है। पुरुष से विराट की उत्पत्ति हुई, विराट् से (जिसे दूसरा पुरुष कह सकते हैं) उस पुरुष (हिरण्यगर्भ) की उद्भूति हुई। जिसे देवों ने एक प्रतीकात्मकयज्ञ के रूप में हवि (आहुति या पशु) दी, जिसमें वसन्त, ग्रीष्म एवं शरद् तीन ऋतुएँ क्रम से घृत, ईंधन एवं हवि है। सम्भवतः यह सूक्त उस समय प्रणीत हुआ था जब, प्रतीत होता है, यह दृढ़ विश्वास हो गया था (जैसा शत० ब्रा० ५।२।४।७, ६।१।१।३ एवं त० सं० ७।४।२।१ में) आया है कि यज्ञ या तप के बिना कुछ भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। इस सूक्त में पुन: आया है कि उस आदियज्ञ से सभी पशु (घोड़े गाय आदि), चारों वर्ण, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वेद, स्वर्ग एवं पृथिवी की उत्पत्ति हुई। अथर्ववेद (१६६) में भी ऐसे १६ मन्त्र हैं । प्रथम पन्द्रह पुरुषसूक्त के समान हैं, किन्तु मन्त्र -क्रमों में अन्तर हैं, और कुछ शब्दों में भी अन्तर है। वाजसनेय संहिता (३१) में पुरुषसूक्त के सभी मन्त्र हैं, प्रत्युत पाँच अन्य मन्त्र एवं एक गद्यांश भी अन्त में ८. ब्रह्मणस्पतिरेतां सं कार इवाधयत् । देवानां पूये युगेऽसप्तः सदजायत ॥ ऋ० (१०७२।२) यहाँ पर 'असत्' को 'अविकसित' (अव्यक्त) के अर्थ में लेना चाहिए न कि 'जिसका अस्तित्व न हो के अर्थ में। बृह० उप. (११४१७) का कथन है : 'यह सब तब (सृष्टि के प्रारम्भ होने के पूर्व) अविकसित (अव्यक्त) था और यह नाम एवं रूप में विकसित (व्यक्त हुआ)।' इसी प्रकार तै० उप० (२१७) में ऐसा कहा गया है-'असद्वा इदमन आसीत् ततो वै सदजायत।' किन्तु छा० उप० (६।३।१-३) में दृढतापूर्वक कहा गया है-"आरम्भ में केवल वही था, जो सत् था, केवल वही जिसका कोई दूसरा नहीं था; कुछ लोग कहते हैं 'आरम्भ मेंकेवल वही था, जो असत् था, जिससे सत् निष्पन्न हुआ;' किन्तु यह कैसे हो सकता था, किस प्रकार सत् (जो है) असत् (जो नहीं है) से उत्पन्न हो सकता था? यह सत् ही था जो आरम्भ में था, जिसके समान कोई दूसरा नहीं था। इसने विचारा : 'क्या मैं अनेक हो सकता हूँ, क्या मैं उत्पन्न कर सकता हूँ;' इसने अग्नि... आदि उत्पन्न की।" शंकराचार्य (वे० सू० ११४१५) ने तै० उप० (२७) के 'असद् वा इदमन आसीत्' एवं छा० उप० (३॥१६॥१) के 'असदेवरमन आसीत्' की ओर संकेत किया है और इस बात को समझाया है कि इन वचनों में असत् का क्या अर्थ है, यथा-'नामरूपव्याकृतवस्तुविषयः प्रायेण सच्छब्दः प्रसिद्ध इति तद्व्याकरणाभावापेक्षया प्रागुत्पत्तः सदेव ब्रह्मासदिवासीवित्युपचर्यते।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy