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धर्मशास्त्र का इतिहास
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है और न उसे स्रष्टा ( या निर्माणकर्ता) ही कहा गया है, केवल उसे 'तदेकम्' कहा गया है, जैसा कि उपनिषदों में आया है (छा० उप० ६।१।१ - २, 'तत्त्वमसि' या 'एकमेवाद्वितीयम्') । महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत स्पष्ट मन्त्र यहाँ अनूदित किये जा रहे हैं—'उस समय न तो असत् (जो नहीं है, अर्थात् जिसका अनस्तित्व है ) था और न सत् ( जो है, अर्थात् जिसका अस्तित्व है); न आकाश था और न स्वर्ग जो बहुत दूर है; वह क्या था जिसने सबको आवृत कर रखा था? वह कहाँ और किसके आश्रय में था ? क्या गम्भीर एवं गहन ( अतलस्पर्शी) जल था ? ; ( २ ) मृत्यु नहीं थी, अतः कुछ भी अमर नहीं था; रात्रि एवं दिन में कोई चेतना ( अन्तर) नहीं थी; वायु नहीं थी, अपने स्वभाव (शक्ति) से ही लोग साँस लेते थे, वास्तव में, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था; ( ४ ) इच्छा (काम) प्रकट हुई, वह मन का प्रथम प्रवाह ( बीज, सन्तति ) था ; ( ५ ) ( जब यह सृष्टि प्रकट हुई तो ) इसे सीधे ढंग से ( स्पष्ट या सरल ढंग से) कौन जानता है, और कौन इसकी उद्घोषणा कर सकता है कि यह ( वहाँ पर ) कहाँ से आयी ? ; (६) जिससे यह सृष्टि हुई, चाहे उसने इसे बनाया या नहीं बनाया, और सर्वोच्च ( परम ) व्योम में। इसका सर्वोच्च अध्यक्ष है, क्या वह वास्तव में जानता है या वह भी नहीं जानता है ? '
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यह अवलोकनीय है कि इस सूक्त के ऋषि ने, जो कवि एवं दार्शनिक था, उद्घोषित किया कि वह एक था, जो सभी देवों, दशाओं एवं सीमाओं से ऊपर था; उसने (ऋषि ने ) विश्व की सृष्टि के पूर्व की स्थिति के विषय में अपनी धारणा व्यक्त की है। रात्रि एवं दिन, मृत्यु एवं अमरता द्वन्द्व कहे जाते हैं । इनका अस्तित्व तभी होता है जब सृष्टि हो गयी रहती है और इसी से ऋषि ने कहा है- 'न तो मृत्यु थी और न कोई अमरता ( थी ) ।' यह सूक्त यह नहीं कहता कि पहले असत् था और उससे सत् की उद्भूति हुई । इसके कहने का अभिप्राय यही है कि केवल वही अकेला साँस लेता था, द्वन्द्व, सत् ( अस्तित्व) एवं असत् (अनस्तित्व ) का अस्तित्व ही नहीं था । इस सूक्त अनुवादों एवं टिप्पणियों के लिए देखिए मैक्समूलर कृत 'हिस्ट्री आव ऐंश्येण्ट संस्कृत लिटरेचर' (१८५६), पृ० ५३६-५६६ एवं ‘सिक्स सिस्टेम्स आव इण्डियन फिलॉसॉफी' (१६१६ का संस्करण), पृ० ४६-५२, डा० राधाकृष्णन कृत 'इण्डियन फिलॉसॉफी' (१६२३, खण्ड १ ) पृ० १०० १०४ । प्रो० विटनी ( प्रोसीडिंग्स आव अमेरिकन ओरिएण्टल सोसाइटी, खण्ड ११, पृ० ६१ ) ने अपनी विशिष्ट अत्युद्धत प्रणाली में टिप्पणी की है कि इस सूक् विषय में जो प्रशंसा-सूत्र गाये गये हैं वे उन्हें बहुत बुरे लगते हैं । ड्यूसन ने ट्विटनी के कुत्सात्मक लेख के बहुत दिनों के उपरान्त लिखा है- 'अपनी उत्कृष्ट सरलता एवं दार्शनिक दृष्टि की महत्ता में, सम्भवतः यह प्राचीन काल के दर्शन-शास्त्र का अत्यन्त प्रशंसनीय एवं श्लाघ्य अंश है,' 'कोई अनुवाद इसके मूल अंश की सुन्दरता के बराबर नहीं आ सकता' (देखिए ब्लूमफील्ड कृत 'दि रिलिजिन आव दि वेद', पृ० २३४, १६०८ का संस्करण) || और देखिए कीथकृत 'रिलिजिन एण्ड फिलॉसॉफी आव दि वेद एण्ड उपनिषद्स' ( खण्ड २, पृ० ४३५-४३६) । ऋग्वेद के कई वचनों में विभिन्न देव स्रष्टा के रूप में वर्णित हैं । देव प्रजापति ने, ऐसा कहा गया है, स्वर्ग एवं पृथिवी की रचना की, जो चौड़ी, गहरी और सुन्दर ढंग से निर्मित है और उन्हें अपनी शक्ति द्वारा बिना किसी आश्रय के आगे बढ़ा दिया है अथात् उन्हें गति दी है (देखिए ऋ० ४ । ५६ । ३ ) । इन्द्र ने सूर्य एवं उषा को बनाया, ऐसा कहा गया है (ऋ० २।१२।७) और उसने स्वर्ग को बिना स्थाणु (थून्ही) के आश्रय के टिका रखा है, और उसे आश्रय दिया है और पृथिवी को फैला दिया है (ऋ० २।१५।२) ।
उपर्युक्त सूक्त उस काल की धारणा है जब विश्व के उद्भव के विषय में कोई सामान्य ढंग से स्वीकृत सिद्धान्त निरूपित नहीं हो सकता था । किन्तु इतना तो स्पष्ट हो है कि अत्यन्त प्राचीन काल में, कम से कम कुछ वैदिक ऋषियों ने इस सिद्धान्त की स्थापना कर ली थी कि केवल एक ही 'प्रिंसिपुल' या 'स्पिरिट' (आत्मा या मूल
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