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धर्मशास्त्र का इतिहास
हिन्दू तन्त्रों में उपनिषदों एवं गीता या सांख्य एवं योग के दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा भी की गयी है। और उनके अनुसार सबके लिए अन्तिम लक्ष्य मुक्ति ( जन्मों एवं मरणों के चक्रों से छुटकारा) ही है, किन्तु उसकी प्राप्ति तन्त्रों द्वारा व्यवस्थित मार्ग से ही सम्भव है । प्रकाशित हिन्दू तन्त्रों की संख्या अधिक है, अतः कुछ ही तन्त्रों, यथा –— कुलार्णव, पारानन्दसूत्र, प्रपंचसार, महानिर्वाणतन्त्र, वामकेश्वरतन्त्र, ( आनन्दाश्रम संस्करण), शक्तिसंगमतन्त्र, शारदातिलक, की ओर निर्देश किया जायगा । बौद्ध तत्वों में आर्यमंजुश्रीमूलकल्प, गुह्यसमाजतन्त्र, प्रज्ञोपायविनिश्चयसिद्धि, ज्ञानसिद्धि, साधनमाला, सेकोद्देशटीका की ओर संकेत किया जायगा ।
बौद्ध तन्त्रों में अधिकांश का उद्देश्य है बुद्धत्व प्राप्ति के लिए योग क्रियाओं द्वारा सरल मार्ग का अनुसरण करना तथा सिद्धियों (अलौकिक शक्तियों) की प्राप्ति करना । धर्मशास्त्र के इतिहास में बौद्ध तन्त्रों के विषय में विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं है । हाँ, तुलना के लिए कुछ महत्वपूर्ण बातों की जानकारी आवश्यक है । हम यहाँ हिन्दू तन्त्रों पर ही विशेष ध्यान देंगे । तान्त्रिक संस्कृति के दार्शनिक पहलुओं का अध्ययन परशुरामकल्पसूत्र, वामकेश्वरतन्त्र, तन्त्रराज, काश्मीरी शैवागम के ग्रन्थों, भास्कराचार्य के ग्रन्थों एवं भावनोपनिषद् में किया जा सकता है । यह अन्तिम ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और इसे उपनिषद् होने का सम्मान दिया गया है, क्योंकि इसने भावना पर प्रकाश डाला है और तन्त्रराजतन्त्र के वासनापटल का निष्कर्ष उपस्थित किया है । गौतमीयतन्त्र (डकन कालेज पाण्डुलिपि, सं० ११२०, १८८६ - १८६२ ) एवं केशव (जो निम्बार्क के परवर्ती थे) की क्रमदीपिका, जिसके साथ गोविन्द विद्याविनोद, ( चौखम्बा सं० सीरीज़ ) की टीका भी है, आदि वैष्णव तन्त्र हैं, जिनके विषय में यहाँ स्थानाभाव से संकेत नहीं किया जायगा । देखिए अग्निपुराण (३६ ॥ १-७ ) जहाँ २५ वैष्णव तन्त्रों का उल्लेख है, विष्णु प्रतिमा के प्रतिष्ठापन की चर्चा है तथा माहेश्वरतन्त्र आदि का उल्लेख है ( २६।१६ - २० ) ।
हिन्दू तन्त्र, जिनमें शिव एवं पार्वती या स्कन्द या भैरब के कथनोपकथन हैं ( यथा दत्तात्रेयतन्त्र, डकन कालेज पाण्डुलिपि, सं० ६६२, १८८७ -६१ ) यह प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं, कि वे वेदों, आगमों, स्मृतियों एवं पुराणों पर आधारित हैं । वे यह भी कहते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए सरलतर एवं क्षिप्रसाध्य मार्ग भी है और वे बहुधा वैदिक वाक्य भी उद्धृत करते हैं । उदाहरणार्थ, कुलार्णव में शिव देवी से कहते हैं 'मैंने (सत्य) ज्ञान की मथानी से वेदों एवं आगमों के महासागर को मथा है। मैं इनके सारतत्त्व को जानता था और मैंने कुलधर्म को बाहर निकाला है, कोलशास्त्र, वेदवचनों के समान प्रामाणिक है और तर्क द्वारा इसे समाप्त नहीं करना चाहिए २५ ।' इस तन्त्र में आगे ऐसा आया है - जिसने चारों वेद पढ़ लिये हैं, किन्तु
२५. मथित्वा ज्ञानदण्डेन वेदागममहार्णवम् । सारज्ञेन मया देवि कुलधर्मः समुद्धृतः ॥ कलार्णव (२०१० ) ; परानन्दसूत्र (३।६४)में भी सर्वथा यही आया है : 'मथित्वा ज्ञानमन्थेन वेदागममहार्णवम् । पारानन्दमतं शुद्धं रसज्ञेन ॥ इति' ( पृ० ७ ) ; 'कुलशास्त्राणि सर्वाणि मयैवोक्तानि पार्वति । प्रमाणानि न सन्देहो न इन्तव्यानि हेतुभिः ।। देवताभ्यः पितृभ्यश्च मधुवाता ऋतायते । स्वादिष्ठया मदिष्ठया क्षीरं सर्पिर्मधूदकम् । हिरण्यपावाः खादिश्च अबधनं पुरुषं पशुम् । दीक्षामुपेयादित्याद्याः प्रमाणं श्रुतयः प्रिये ॥ कुलार्णव (२०१३६-१४१) । देवताभ्यः पितृभ्यश्च' वायु पु० (७४।१५) है; 'मधुवाता ऋतायते ऋ० (१२६०।६) है; 'स्वादि.. ष्ठया' ऋ० (६।१११) है; क्षीर.. वकम् ऋ० (६।६७।३२) हैं; 'हिरण्यपावा:' ऋ० (६८६।४३ ) हैं । बहुत-से वैदिक संकेत इतनी चालाकी से चुने हुए हैं कि उनसे मद्य एवं मांस की मधुरता प्राप्त हो ।
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