SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ धर्मशास्त्र का इतिहास दोनों महायुद्धों के परिणामस्वरूप, जिनमें अवर्णनीय अनाचार एवं असभ्य कृत्य अत्यधिक पढ़े-लिखे लोगों एवं ऐसे देशों द्वारा जिनमें लोग ईसाई धर्मावलम्बी रहे हैं, सम्पादित किये गये, एक प्रकार की विराग अथवा जुगुप्सा की भावना उत्पन्न हुई, और कतिपय महान् व्यक्ति इस विषय में तर्कना करने लगे हैं कि यह सब धार्मिक विश्वास के अभाव के कारण हुआ है और वे यही चाहते हैं कि मानव समाज पुनः धर्म की ओर झुके। किन्तु समस्यासम्बन्धी कठिनाई तो यह है कि आज के यग में कौन-से धार्मिक विश्वास एवं व्यवहार लोगों में भरे जायँ और लोग माने तथा प्रयोग में लायें। प्रस्तुत लेखक की दृष्टि में विश्व के रोगों को दूर करने के लिए धर्म कभी भी रामबाण नहीं सिद्ध हो सकता । आज के शिक्षित मानव-समुदाय में बहुत-से लोग कतिपय प्रचलित धार्मिक सिद्धान्तों एवं प्रयोगों तथा उनके बौद्धिक या प्रामाणिक ग्रन्थों से असन्तुष्ट हैं । प्रश्न के समाधान में कठिनाई तो यह है कि धर्म या विश्वास में कैसी बातों का समावेश होना चाहिए जो आज के अधिकांश लोगों या सभी अच्छे लोगों या पढ़े-लिखे आधुनिक बौद्धिक लोगों के मन में उतर सकें। विभिन्न युगों में विभिन्न सदाचारों एवं गुणों (यथामठवास या संसारत्याग या आरण्यकवृत्ति, दान, विनम्रता या अनहंकार, देशभक्ति, समाज-सेवा या लोक हितेच्छा) को विशेष महत्त्व दिया जाता रहा है । यूरोपीय देशों में देश-भक्ति के गुण एवं राष्ट्रीयता की भावना का विकास ईसाई धर्म की शिक्षा के फलस्वरूप नहीं हुआ, प्रत्युत वह यूरोप के राजनीतिक एवं अर्थशास्त्रीय इतिहास में किन्हीं अन्य कारणों से हुआ। वास्तव में, सदाचार एवं शालीनता-सम्बन्धी कतिपय गुण हैं, यथा-धार्मिक, वीरता-सम्बन्धी, सुशीलता-सम्बन्धी आदि । यूरोप एवं अमेरिका के लोगों ने गत चार शतियों में महात्मा ईसा मसीह द्वारा 'पर्वत पर दिये गये उपदेशों' से सम्बन्धित सदाचारों अथवा शील-गुणों को हवा में फेंक दिया और अतुल सम्पत्ति एवं समृद्धि का अर्जन किया। उन्होंने अपने उपनिवेशों का विस्तार किया, वहाँ के लोगों का शोषण किया, पिछड़ी जातियों को पद दलित किया, पशुओं की भाँति मनुष्यों का आखेट किया, उन्हें दासता की बेड़ियों में कसा, चारों ओर प्रतिद्वन्द्विता के नारे लगाये, मानो वे ईश्वर की पूजा के लिए सदुपदेश कर रहे हों ! ' दो महायुद्धों की आहुतियों के उपरान्त बहुत से चिन्तक, न-केवल धार्मिक लोग, प्रत्युत वे लोग भी जो प्रशासन में उच्च पदों पर आसीन हैं, नैतिक ज्ञान की शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव करते हैं और चाहते हैं कि लोगों में अनुशासन, निःस्वार्थ भावना आदि सद्गुणों का उद्रेक हो और लोग जीवन के सत् पदार्थों के बँटवारे में एक-दूसरे से सहयोग करें। इस प्रकार के सदाचारों परबृह० उप० (५।२।१-३) में बहुत बल दिया गया है । ८. देखिए लिवरपुल के लार्ड रसेल कृत 'स्कॉरेज आव दि स्वस्तिक', जहाँ पर (पृ० १७१) उन्होंने हॉस के अंगीकृत वक्तव्य को प्रकाशित किया है कि आश्त्रिविज में कम से कम ३० लाख व्यक्ति मारे गये, जिनमें २५,००,००० गैस चेम्बर से मारे गये थे। पृ० २५० में लेखक ने टिप्पणी की है कि जर्मनों द्वारा ५० लाख से अधिक यूरोपीय यहूदियों की हत्या विश्व-इतिहास में सबसे बड़ी हत्या एवं निकृष्ट अपराध है। ६. आर्चीबाल्ड रॉदर्टसन ने 'रेशनलिज्म इन थ्योरी एण्ड प्रैक्टिस' (वाट्स एण्ड को०, लन्दन, १६५४) में कहा है (पृ० ४१) कि ईसा के धर्म-सम्बन्धी नैतिक गुण प्रयोग में कभी नहीं लाये गये हैं और जो समाज 'माउण्ट के सर्मन' (उपदेश) पर आधृत होगा, वह एक मास तक भी नहीं चल सकता । अपने ग्रन्थ 'काइस्ट' (लन्दन, १६३६) में श्री डब्लू० आर० मैथ्यूज ने पृ० ७६ पर प्रो० ह्वाइटहेड के मत के साथ सहमति प्रकट की है कि यदि पर्वत पर दिये गये सर्मन (ईसा-उपदेश) के सिद्धान्तों को, जैसा कि शब्दों द्वारा समझा जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy