________________
तर्क एवं धर्मशास्त्र हो गयी और सामान्य जनता परम्परानुगत रीतियों, लोकाचारों एवं जाति से बँधी रही, बहुत कम लोगों ने सभी लोगों को उनकी सामान्य आवश्यकताओं की सरक्षा के लिए एकता के सत्र में बाँधने, के कठिन प्रयत्न किये; और इतने महान एवं उत्कृष्ट दार्शनिक सिद्धान्तों के रहते हए भी हमारे देश ने अधिकांश जनता में अधमता, दारिद्रय एवं क्रूर आक्रामकों द्वारा राजनीतिक प्रभुत्व-स्थापन देखा ! कई शतियों से हमारे इतिहास में वेदों के ऊपर निर्भरता तथा ऐसा विश्वास एवं तर्क पाया जाता रहा है कि जो कुछ अतीत में था वह सर्वोत्तम था, तथा अतीत के प्रति एक विलक्षण मोहकता की भावना हममें भरती रही है। हमारा आदर्शवाक्य 'वेदों की ओर नहीं होना चाहिए, प्रत्युत वह 'वेदों के साथ आगे की ओर' होना चाहिए। वेद तथा आप्त वचन को मूल्य देते हुए हमें विचार-स्वातन्त्र्य की भर्त्सना कभी भी नहीं करनी चाहिए।
__ बेंथम, जेम्स मिल एवं जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे कुछ पाश्चात्य बुद्धिवादियों ने 'उपयोगितावाद' (यूटिलिटेरियनिज्म) का सिद्धान्त प्रचारित किया है, जो संक्षेप में यह है कि कर्मों की जाँच उनके परिणामों से की जानी चाहिए
और वे उसी अनपात में ठीक हैं जिस अनपात में वे अधिक-से-अधिक लोगों को अधिक-से-अधिक सूख देते हैं। इस सिद्धान्त में बड़े-बड़े दोष हैं, जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि यह वास्तव में, नैतिक सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि वह यह नहीं बताता कि मनुष्य या समाज को क्या होना चाहिए। धर्म अपने अनुयायियों को बताते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। यह पता नहीं चल पाता कि अधिक-से-अधिक लोग किस बात को अच्छी या सुखद मानते हैं। एक व्यक्ति की दृष्टि में जो अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम अच्छा है वह अन्य लोगों को स्वीकार्य नहीं भी हो सकता। यही एक अन्य कठिनाई है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि बहुत-से लोग अन्य लोगों के सुख के लिए कुछ भी नहीं करते। इस सिद्धान्त द्वारा नैतिक, राजनीतिक एवं अर्थशास्त्रीय कर्म अस्पष्ट एवं संकुल हो उठते हैं । व्यवहार में यह सिद्धान्त, सुख पर बल दिये जाने के कारण, सुखवाद एवं भौतिक पदार्थों में लवलीन हो जाने की छूट देने लगा है।
प्रस्तुत लेखक विचार-स्वातन्त्र्य का विरोध नहीं करता, किन्तु वह जिस बात का विरोधी है, वाद की बद्धमूलता, जिसने करोड़ों सामान्य नर-नारियों को विश्वासरहित बना दिया है और उन्हें नास्तित्ववादी एवं अनात्मवादी बनाती जा रही है। बुद्धिवादी एवं उपयोगितावादी लोग सामान्य लोगों के लिए आचार के मूल्यों एवं सिद्धान्तों के विषय में कुछ कहते ही नहीं। यदि ईश्वर एवं आत्मा का निष्कासन करना ही है तो उन्हें इसके स्थान पर अपेक्षाकृत कोई अधिक मूल्यवान् एवं उपयोगी तत्त्व रखना चाहिए था जिसके लिए आज की नयी पीढी कुछ करती और अपना उत्सर्ग करती। यद्यपि हम ऐसा नहीं कह सकते कि धार्मिक एवं सामाजिक विषयों के अन्तिम ज्ञान की बातें वेद में या प्राचीन ऋषियों एवं लेखकों के ग्रन्थों में पायी जाती हैं, किन्तु आज के विज्ञ व्यक्ति यह निर्णय देने के पूर्व हिचकेंगे कि ईश्वर एवं अमर आत्मा वाले सिद्धान्त में विश्वास करने के विरोध में हमें कोई नारा उठाना चाहिए। गीता ने अधिकांश लोगों को सावधान किया है (३।२६)---'ज्ञानी (या विद्वान) लोगों को उन अबोध लोगों के मनों को, जो (आचरण द्वारा विशिष्ट) कर्मों में लिप्त हैं, अस्तव्यस्त नहीं करना चाहिए। प्रबुद्ध व्यक्ति को स्वयं एक योगी के समान सभी कर्म करते हुए अन्य लोगों को सभी कर्म करने के लिए प्रवृत्त करना चाहिए।'
he
७. आजकल भी रमण महर्षि (अरुणाचल के मुनि, १८७६-१६५०) जैसे मुनि पाये जाते हैं जिनमें अद्वैत वेदान्त को सच्ची लगन है । श्री आर्थर ऑसबॉर्न ने 'रमन महर्षि एण्ड दि पाथ आव सेल्फ नालेज' (राइडर एण्ड को०, १६५४) नामक मनोरम ग्रन्थ लिखा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org