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तर्क एवं धर्मशास्त्र भारत में सम्राट अशोक ने ई० पू० तीसरी शती में ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म के लिए अपने अनुशासनों द्वारा सहिष्णुता की भावना की शिक्षा दी है (देखिए इसी खण्ड के अध्याय २५ को)। अशोक ने किसी धर्म-विशेष के सिद्धान्तों की चर्चा नहीं की है, प्रत्युत उन्होंने अपने को अपने प्रजाजनों का पिता मान कर उनके लिए ऐसी नैतिकता की व्यवस्था की है जो व्यावहारिक है और सबको स्वीकार्य हो सकती है, यथा-सहिष्णुता, मानवता, भिक्षुओं एवं दरिद्रों को दान तथा मूक पशुओं के प्रति करुणा की भावना। आगे चल कर, यह प्रदर्शित करना अत्यन्त आवश्यक था कि तर्क द्वारा उपस्थित सिद्धान्त वेद द्वारा स्थापित सिद्धान्त या वचन के सीधे विरोध में न पड़ें। यहाँ एक ही उदाहरण पर्याप्त है--यद्यपि उपनिषद् ऐसे वचनों द्वारा, यथा---'अहं ब्रह्मास्मि' (छा० उप० ३।१४।१), 'तत्त्वमसि' (छा० उप० ६।८७) अद्वैत की अभिव्यक्ति करते हैं, किन्तु मध्वाचार्य भी अपना द्वैत सिद्धान्त प्रतिपादित कर सके और उन्होंने अपनी तर्कना से उपर्युक्त वचनों की व्याख्या की, और अपने को ही वेद का सच्चा व्याख्याता कहा तथा अद्वैत सिद्धान्त को प्रच्छन्न बौद्ध धर्म की संज्ञा देकर उसका तिरस्कार किया । किन्तु ऐसा करने में किसी पक्ष को कोई यातनाएँ नहीं सहनी पड़ी। याज्ञवल्क्य (२।१६२) ने वणिक समुदायों (विदेशी व्यापारियों) , पाषण्डियों (अन्य धर्मियों) तथा उनके जीवन-निर्वाह के ढंगों की सुरक्षा के लिए राजा को उत्तरदायी ठहराया है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक रूपों एवं उनके आचारों तथा एक-दूसरे के सर्वथा विरुद्ध दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रति सहिष्णुता की भावना से एक दुर्बलता भी आती गयी है, यथा--इससे धार्मिक विश्वासों, रीतियों एवं दार्शनिक मतों में असंख्य रूप-भेदों की सृष्टि होती गयी है, कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो गये हैं जिनमें कुछ तो अत्यन्त गर्हित एवं अस्वस्थ हैं।
कार्यान्वित किया जाये तो इसका तात्पर्य होगा सभ्यता की अचानक मृत्यु। अपने ग्रन्थ 'ऐक्विजिटिव सोसाइटी' (१६२१) में श्री सी० एच० टॉनी ने दृढ़तापूर्वक यह कहा है कि ईसाई धर्म में जो ईसाईपन था वह लगभग १७वीं शती के उपरान्त समाप्त हो गया है (पृ० १२-१३) ।
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