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________________ २६८ धर्मशास्त्र का इतिहास एवं समाधि से उत्पन्न सिद्धियों को लाकर रख दिया है। ओषधि से उत्पन्न सिद्धि तथा समाधि से उत्पन्न सिद्धि में महान् अन्तर है। पतञ्जलि का कथन है कि 'ओम्' ईश्वर का प्रतीक है और इसके जप से और इसके अर्थ पर ध्यान देने से एकाग्रता की उद्भूति होती है, किन्तु इसकी कोई व्याख्या नहीं है कि ओम् ईश्वर की अभिव्यक्ति किस प्रकार है और न ओम् की महत्ता के विषय में उपनिषदों की ओर कोई संकेत ही है और न यही बताया गया है कि जप किस प्रकार किया जाय। सम्भवतः यह उस अति प्राचीन परम्परा का द्योतक है कि आध्यात्मिक ज्ञान गुप्त रखना चाहिए, सभी प्रकार के लोगों को इसकी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए, केवल उसी शिष्य को इसका ज्ञान देना चाहिए जिसमें कुछ विशिष्ट गुण हों। हमने इस खण्ड के अध्याय २६ में उपनिषदों के उद्धरणों से व्यक्त कर दिया है कि किस प्रकार गूढ ज्ञान केवल किसी गुरु द्वारा ही शिष्य को दिया जाना चाहिए । याज्ञवल्क्य एवं आर्तभाग के संवाद (बृह० उप० ३।२।१३) में ऐसा आया है कि जब आतंभाग ने याज्ञवल्क्य से यह कहने के उपरान्त कि 'मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की वाणी अग्नि में चली जाती है, उसकी साँस वाय में प्रविष्ट हो जाती है। आँखें सर्य में विलीन हो जाती हैं, शरीर पथिवी में समाविष्ट हो जाता है. यह पूछा कि 'तब व्यक्ति कहाँ बच रहता है, तो याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया--'मेरा हाथ पकड़ो, इस विषय में केवल हम दोनों ही किसी समाधान पर पहुँचें, किन्तु यहाँ इस भीड़ में नहीं। तब दोनों एक ओर गये और एक-दूसरे से बातें करते रहे। इससे यह प्रकट होता है कि मृत्यु के उपरान्त क्या होता है उसका विवेचन सर्वसाधारण के मध्य में करना उचित नहीं समझा जाता था। छान्दोग्योपनिषद् (३।२।५) में आया है-'अतः पिता उस ब्रह्म-सिद्धान्त को अपने ज्येष्ठ पत्र से या किसी योग्य शिष्य से कह सकता है, किसी अन्य से नहीं, चाहे कोई उसे समद्रों से घिरी एवं धन से पूर्ण पथिवी ही क्यों न दे दे, क्योंकि यह सिद्धान्त उससे भी अधिक मूल्यवान है।' बह० उप० (६।३।१२) में आया है-'इस (ब्रह्म) के विषय में किसी अन्य से जो अपना पुत्र या शिष्य नहीं है, नहीं बोलना चाहिए ।' और देखिए श्वेताश्वतरोपनिषद (६।२२) एवं मंत्रा० उप० (६।२६)। शान्तिपर्व (२४६।१६-१८, चित्रशाला संस्करण) में कहा गया है कि आध्यात्मिक ज्ञान अपने प्यारे पुत्र एवं आज्ञाकारी शिष्य को देना चाहिए, उस व्यक्ति को नहीं जिसका चित्त शान्त या संयमित न हो, उसको भी नहीं जो ईर्ष्याल है, दुष्ट प्रकृति का है, चगलखोर है या तर्कशास्त्र-दग्ध (तर्कता करने वाला, बाल की खाल निकालने वाला) है। हठयोगप्रदीपिका में आया है--सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा वाले योगी को हठविद्या गोपनीय रखनी चाहिए; जब यह गोप्य (गोपनीय) रहती है तो वीर्यवती (शक्तिशाली) रहती है, किन्तु जब प्रकाशित हो जाती है तो निर्वर्य अर्थात् दुर्बल (प्रभावहीन) हो जाती है। गुरु द्वारा उपदेशित मार्ग से ही इसका अभ्यास किया जाना चाहिए।'८४ यह बात प्राचीन काल में न केवल गढ या अलौकिक ज्ञान के विषय में लागू थी, प्रत्युत अन्य विद्यालयीन विद्याध्ययन के विषय में भी प्रचलित थी। निरुक्त (२१३) में आया है कि इसका अध्यापन उसको नहीं होना चाहिए जो व्याकरण न जानता हो, उसको भी नहीं जो ज्ञान के लिए गुरु के पास नहीं जाता, या जो शास्त्र की महत्ता नहीं जानता, क्योंकि अबोध (अज्ञानी) व्यक्ति ज्ञान के विषय में दृष्ट इच्छा रखता है; और निरुक्त (२।४) ने इस विषय में विद्यासूक्त नामक चार मन्त्र उद्धृत किये हैं। भगवद्गीता ८५. तदिदं नाप्रशान्ताय नादान्तायातपस्विने । नासयकायानजवे न चानिविष्टकारिणे । न तर्कशास्त्र दग्धाय तथैव पिशुनाय च ॥ शान्ति० (२४६।१६-१८ चित्रशाला संस्करण)। 'असूयकायानजवे' शब्दों में निरुक्त (२४) में आये 'विद्या ह वै....असूकायानजवे... आदि' की प्रतिध्वनि मिलती है । हठविद्या परं गोप्या योगिना सिद्धिमिच्छता। भवेद्वीर्यवती गुप्ता निर्वार्था तु प्रकाशिता ॥ गुरूपदिष्टमार्गेण योगमेव समभ्यसेत् । ह० यो० प्र० (११११,. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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