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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६ में श्री कृष्ण ने भक्तियोग के ज्ञान को अत्यन्त गोपनीय माना है (६२), १७१६३ में जो ज्ञान अर्जुन को दिया गया है वह सभी गुप्त ज्ञानों से अधिक गुप्त (गोपनीय) माना गया है तथा १८।६४-६५ में कृष्ण ने अर्जुन से अपने अत्यन्त गोप्य शब्दों को सुनने के लिए कहा है-'चित्त को मुझमें लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरे लिए यज्ञ करो, मेरे समक्ष साष्टांग प्रणत हो; तुम मेरे पास आओगे, मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो।' यह वचन ६६३४ से लेकर पुन: दुहराया गया है। १५ वें अध्याय के अन्त में यह कहा गया है—हे निरपराधी, यह अत्यन्त गोप्य (गुप्त) सिद्धान्त मेरे द्वारा तुम्हारे लिए घोषित किया गया है।' इस विषय में यहाँ विवाद नहीं उठाया जा सकता कि योग का मार्ग उचित या सम्भाव्य (साध्य, सुकर या करणीय) है या नहीं। किन्तु सहस्रों वर्षों तक भारतवर्ष में महान व्यक्तियों ने योग के मार्ग का अनुसरण किया है, जिससे वे योग द्वारा अविद्या से आत्मा की स्वतन्त्रता के एवं जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होने के वाञ्छित लक्ष्य को प्राप्त कर सके थे । शान्तिपर्व (२८६५० एवं ५४) के युग में भी योगमार्ग कठिन था और यह छुरे की धार पर चलना था; जिनका आत्मा शुद्ध नहीं हो सका वे धारणाओं के अभ्यास को कठिन एवं कष्टप्रद समझते थे । कालिदास ने रघुवंश (८।१६-२४) में राजा रघु द्वारा किये गये योगाभ्यास का सुन्दर वर्णन उपस्थित किया है । कालिदास ने (८१६ में) संन्यासी रघु के अपवर्ग प्राप्ति के लक्ष्य की ओर संकेत किया है और उसकी तुलना महोदय (अभ्युदय या भोग) से की है। ये दोनों शब्द योगसूत्र (२०१८, 'प्रकाशमोगापवर्गाथं दृश्यम्') में आये हैं। कालिदास ने धारणा का उल्लेख किया है (८११८) उन्होंने प्रणिधान-अभ्यास एवं पञ्चप्राणों पर स्वामित्व-स्थापन का उल्लेख किया है (रघुवंश ७।२१, योगसूत्र ३४८ 'प्रधानजय') तथा योगविधि को परमात्मदर्शन का साधन माना है (रघु० ८१२२, याज्ञ० ११८) ।। राजयोग ने प्रकृति (या अद्वैतवाद की माया) से मुक्ति को परम लक्ष्य माना है और इसने इस पर बल दिया है कि हम इन्द्रिय-सुख एवं अविद्यामूलक जीवन का त्याग कर दें । मुक्ति का अर्थ है वेदान्तियों के लिए ब्रह्म में लीन हो जाना या कैवल्य (शुद्ध योग के अनुसार यह जीवात्मा का जन्म-मरण एवं प्रकृति से पृथक् हो जाना या छुटकारा पा लेना है)। असंख्य नर-नारियों के लिए पातञ्जल योग या अद्वैत वेदान्त का मार्ग एवं अन्तिम लक्ष्य दुर्लध्य एवं अप्राप्य है, जैसा कि स्वयं गीता ने कहा है-'जिनका चित्त अव्यक्त पर लगा है वे अपेक्षाकृत (उन लोगों की अपेक्षा जो किसी व्यक्तिगत देव की पूजा करते हैं) अधिक भारी कठिनाइयों का सामना करते हैं, क्योंकि शरीरधारी प्राणियों द्वारा अव्यक्त के लक्ष्य तक पहुंचना बड़ा कठिन है।' कर्मयोग (शास्त्रविहित अच्छे कर्मों का बिना फल की इच्छा के सम्पादन) का एवं भक्तियोग (जहाँ ईश्वर के प्रति गम्भीर भक्ति एवं आत्म-समर्पण होता है) का मार्ग सामान्य मानव प्राणियों के लिए, अपेक्षाकृत अधिक योग्य लगता है । गीता के अध्याय १३ में (श्लोक १३-१७) ईश्वर सम्बन्धी सर्वोत्तम वर्णन हैं (उसे सर्वातिरिक्त एवं अन्तःस्थ रूप में व्यक्त किया गया है) और श्लोक १८ में इतना जोड़ दिया गया है कि जो ईश्वर का भक्त इसे समझता है वह ईश्वर की उपलब्धि करता है। जो लोग श्री अरविन्द घोष, उनके पांडिचेरी स्थित आश्रम एवं उनके विशाल साहित्य से परिचित होंगे, वे इस बात से आश्चर्य प्रकट कर सकते हैं कि प्रस्तुत लेखक ने योग एवं धर्मशास्त्र पर इसके प्रभाव से सम्बन्धित इस भाग में श्री अरविन्द (जो अपने शिष्यों एवं प्रशंसकों द्वारा महायोगी कहे जाते हैं) के विषय में कुछ भी उल्लेख नहीं किया। कारण स्पष्ट है । पहली बात यह है कि श्री अरविन्द ने योग से सम्बन्धित धर्मशास्त्र के विषय में कदाचित् ही कुछ कहा है। दूसरी बात यह है कि श्री अरविन्द ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्हें किसी. 'गुरु से स्पर्श' नहीं प्राप्त हुआ है, उन्हें भीतर से ही स्पर्श प्राप्त हुआ और उन्होंने योगाभ्यास किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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