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योग एवं धर्मशास्त्र
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शताब्दियों से भारत में संन्यासियों एवं योगियों की अत्यन्त सम्मानपूर्वक पूजा होती रही है। श्राद्ध के अवसर पर योगी को विशिष्ट रूप से आमन्त्रित करने की परम्परा रही है और कहा गया है कि एक योगी सैकड़ों एवं सहस्रों ब्राह्मणों के समान है। देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ४, पृ० ३८८, ३६८-३६६। कुछ परिस्थितियों में जब धर्म के विषय में शंका उत्पन्न हो जाती थी तो विवादग्रस्त विषय का निर्णय दस विद्वान् ब्राह्मणों या कम से कम तीन ब्राह्मणों की परिषद् पर छोड़ दिया जाता था, किन्तु एक व्यक्ति भी परिषद् का कार्य कर सकता था यदि वह वेदज्ञ हो तथा धर्म को जानने वाला हो (मनु १२।१०८-११३) । किन्तु याज्ञ० (१६) आदि ने कहा है कि चार वेदज्ञ एवं धर्मशास्त्रज्ञ या उसी प्रकार के तीन या केवल एक, जो आध्यात्मिक विषयों के जानकारों में सर्वश्रेष्ठ हो, परिषद् का कार्य कर सकता है और वह जो घोषित करेगा वह आचरण करने (धर्म) की सच्ची विधि होगी। इस विषय में देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खस्ड २, पृ० ६६६ । भगवद्गीता में आया है-'योगी (जो वास्तव में कर्मयोगी है और जिसने कर्मफल भगवान् को समर्पित कर दिये हैं) तप करने वालों (व्रत आदि या हठयोग करने वालों) से उत्तम होता है, वह उनसे भी उत्तम होता है जो दार्शनिक ज्ञान (सांख्य आदि) पर अधिकार रखते हैं, और वह उनसे भी उत्तम होता है जो वैदिक कृत्य (स्वर्ग प्राप्त करने के लिए) करते हैं, अत: हे अर्जुन, वैसे योगी बनो, जो कर्म करता है (क्योंकि ऐसा करना उसका धर्म है, कर्तव्य है और जो किये गये कर्मों के फलों के पीछे नहीं रहता)।
मनु (१२।८३) का कथन है-'वेदाध्ययन, तप, सत्य ज्ञान (ब्रह्म के विषय में) इन्द्रिय-निग्रह, अहिंसा, गुरुसेवा ये निःश्रेयस (अर्थात् मोक्ष) के सर्वोच्च साधन हैं।' श्लोक ८५ में पुनः आया है—'इन छह साधनों में आत्मा का सत्य ज्ञान सर्वोत्तम है, यह सभी विद्याओं का सिरमौर है, क्योंकि इसके द्वारा अमरता (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।'
याज्ञवल्क्य स्मृति (११८) ने योग को वेदान्त के अभिन्न भाग के रूप में सर्वोच्च स्थान दिया है और कहा है कि योग द्वारा आत्मदर्शन सर्वोच्च धर्म है (अयं तु परमो धर्मो यद् योगेनात्मदर्शनम्) । इसी स्मृति में पुन: आया है--'वेदाध्ययन, यज्ञ, ब्रह्मचर्य, तप, दम (इन्द्रिय-निग्रह), श्रद्धा, उपवास एवं स्वातन्त्र्य (सांसारिक विषयों से दूर रहना) आत्मज्ञान के हेतु हैं।'८३ यह द्रष्टव्य है कि इन हेतुओं में कुछ यम, नियम एवं प्रत्याहार के अन्तर्गत आ जाते हैं। दक्षस्मृति ने दृढतापूर्वक कहा है--'वह देश, जहाँ ऐसा योगी रहता है जो योग में पारंगत है और ध्यान करने वाला है, पवित्र हो जाता है; तो उसके बन्धुओं के विषय में क्या कहना है !' (अर्थात् वे अवश्य ही पवित्र हो जायेंगे )।४
योगसूत्र कठिन हैं और योगाभ्यास की कतिपय अवस्थाओं की पूर्ण व्याख्या नहीं उपस्थित करते। वे संक्षिप्त टिप्पणी के रूप में हैं, मानो यह निर्देश करते हैं कि लोग उत्सुक होकर योगाभ्यासों की जानकारी के लिए किसी समर्थ गुरु के चरणों में जायें। कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं, यथा-योगसूत्र (२०५०) ने तीन प्राणायामों की ओर संकेत किया है जब कि २।५१ ने एक चौथा प्रकार भी उल्लिखित किया है (बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी चतुर्थः) । इस चौथे प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है। ४।१ में पतञ्जलि ने एक साथ ही जन्म, ओषधि, मन्त्र, तप
५३. वेदानुवचनं यज्ञो ब्रह्मचयं तपो दमः। श्रद्धोपवासः स्वातन्त्र्यमात्मनो ज्ञानहेतवः॥ याज्ञ० (३।१६३); मिलाइए बृह० उप० (४४१२२)।
२४. यस्मिन्वेशे बसेरोगी ध्यायी योगविचक्षणः। सोऽपि देशो भवेत्ततः किं पुनस्तस्य बान्धवाः ॥ दक्षस्मृति (४४५)।
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