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________________ २६६ धर्मशास्त्र का इतिहास अल्पता । ५० सर्वथा ये ही शब्द वायुपुराण एवं मार्कण्डेयपुराणों में आये । मार्कण्डेयपुराण में कुछ और भी कहा है- 'लोग योगी की चाहना या उसे पसन्द करते हैं और उसके पीछे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं, सभी पशु उससे भय नहीं रखते; वह अति शीत या उष्ण से प्रभावित नहीं होता और न किसी से भय रखता है, इससे प्रकट होता है कि योग में सिद्धि आ रही है।' वायुपुराण में आया है कि 'यदि योगाभ्यासी पृथिवी या अपने को मानो अग्नि में जलता देखे और यदि वह अपने को सभी भूतों (या सभी प्राणियों) में प्रवेश करता देखे तो उसे समझना चाहिए कि योग में सिद्धि (सफलता) उपस्थित है' (११।६४, कृत्यकल्प, मोक्ष०, पृ० २११) । मार्कण्डेयपुराण (३८।२६ ) एवं विष्णुपुराण (२।१३ ) में विस्तार के साथ योगी-चर्या ( योगी के व्यवहार या आचरण या चरित्र ) का उल्लेख है । यहाँ पर सभी बातें नहीं दी जा सकतीं, केवल दो महत्त्वपूर्ण श्लोकों का अर्थ दिया जा रहा है। मार्कण्डेयपुराण १ में आया है मनुष्यों में (सामान्यतः ) मान एवं अपमान प्रीति एवं उद्वेग ( क्लेश ) उत्पन्न करते हैं; किन्तु ये दोनों योगी में विपरीत अर्थवाले होते हैं और उसके लिए सिद्धिकारक सिद्ध होते हैं; ये क्रम से विष एवं अमृत कहे जाते हैं; अपमान योगी के लिए अमृत है और मान विष ।' विष्णुपुराण ने बल दिया है कि योगी को ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि लोग उसका अपमान करें और उसका संग न करें। मनुस्मृति ( ६।२८ - ८५ ) ने संन्यासियों के कर्तव्यों का विवेचन किया है जिनमें कुछ योगियों के लिए भी सटीक बैठते हैं । मनु (६।६५) ने योग के साधनों द्वारा परमात्मा की सूक्ष्मता की जानकारी के लिए संन्यासियों को प्रबोधित किया है और दूसरे स्थान ( ६ । ७३) पर उनसे ध्यानयोग के अभ्यास की बात कही है। और देखिए याज्ञ० (३) ५६-६७ ) | शान्तिपर्व ( २६४ । १४-१७ = ३०६।१४-१७ चित्रशाला ) में आया है कि योग की विधि एवं विधानों (नियमों ) को जानने वाले उसी को योगी कहते हैं जो मन से इन्द्रियों को स्थिर कर देता है, बुद्धि से अपने मन को निश्चल बना देता है, पाषाण की भाँति अडिग हो जाता है, स्थाणु ( पेड़ के तने) की भाँति अकम्पित हो जाता है तथा पर्वत की भाँति गतिहीन ( निश्चल ) एवं शक्तिशाली होता है। समझदार ( विज्ञ ) लोग उसी को युक्त (योगी) कहते हैं जो न सुनता है, न गन्ध लेता है, न स्वाद लेता है, न देखता है और न स्पर्श करता है; जिसके मन में (परिवर्तनशील) संकल्प नहीं उठते हैं, जो किसी भी वस्तु को अपनी नहीं कहता, जो बाह्य जगत् की वस्तुओं को नहीं पहचानता, अर्थात् जो मानो काठ के समान हैं, और जिसने आत्मा के वास्तविक एवं मौलिक रूप की अभिज्ञता प्राप्त कर ली है । देवलधर्मसूत्र ( कल्पतरु, मोक्षप्रकरण, पृ० ६०-६१ ) ने व्यवस्था दी है कि अहंकार एवं ममत्व के फलस्वरूप सभी प्राणी बन्धन में आ जाते हैं, किन्तु जो इनसे मुक्त है वह मुक्त है। ८०. लघुत्वमारोग्य मलोलुपत्व वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च । गन्धः शभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्ति प्रथमां वदन्ति ॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् (२०११) ; वायु० ( ११।६३ ) ; मार्कण्डेय० : ( ३६।६३ - ३६।६३, कलकत्ता संस्करण) । और देखिए कृतकल्प० (मोक्ष०, पृ० २११ ) । ८१. मानापमानौ यावेतौ प्रीत्युद्वेगकरौ नृणाम् । तावेव विपरीतार्थी योगिनः सिद्धिकारकौ ॥ मानापमानो यावेतौ तावेवाहुविषामृते । अपमानोऽमृतं तत्र मानस्तु विषमं विषम् ॥ मार्क० (३८/२-३ ) ; मिलाइए विष्णुपुराण (२।१३।४२-४३ ) संमानना परां हानि योगः करुते... ।' ८२. इयं ममेति यत्स्वाम्यमात्मनोऽर्थेषु मन्यते । अजानंस्तदनित्यत्वं ममत्वमिति तद्विदुः ॥ अहमित्यभिमानेन यः क्रियासु प्रवर्तते । कार्यकारणयुक्तासु तदहंकारलक्षणम् ॥ अहंकारममत्वाभ्यां बध्यन्ते सर्वदेहिनः । संसारविनियोगे ताभ्यां मुक्तस्य (मुक्तस्तु ? ) मुच्यते ॥ देवल ( कल्पतरु, मोक्ष०, पृ० ६०-६१ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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