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________________ २६० धर्मशास्त्र का इतिहास और जोड़ दिया है कि वह (योगी) जिसका ध्यान करता है उसकी उपलब्धि करता है, और यही ध्यान का रहस्य है। इससे प्रकट होता है कि ध्यान या तो सगुण होता है या निर्गुण, जैसा कि पद्मपुराण के ४४८४/८० - ८६ (निर्गुण) एवं ४ । ८४ । ८८ - ६६ ( सगुण) में आया है, या साकार एवं निराकार होता है, जैसा कि पद्मपुराण (२।८०।७०, ७० - ७८ ) में व्यक्त किया गया है । और देखिए विष्णुपुराण (६।७।७८- ६० ), स्कन्द० (काशीखण्ड ४१।१६), नरसिंहपुराण (१७१११ - २८, २६ । १७ ) ; कृत्यकल्पतरु, मोक्ष० ( पृ० १६१ - १६२ ); शंखस्मृति (७/१६) । ध्यान की अवस्था में केवल कर्ता (योगी) एवं विषय ( ध्यान के विषय) में द्वैध पाया जाता है, विषय पर मन को बाँधने के प्रयास की चेतनता नहीं पायी जाती, जैसा कि धारणा में होता है । समाधि वह अवस्था है जिसमें केवल ध्येय ही प्रकाशित रहता है और ध्यान, ऐसा प्रतीत होता है, स्वयं शून्य हो गया है, क्योंकि उस स्थिति में ध्यान का ध्येय से पृथक् कोई ज्ञान या भास नहीं रहता । ७० समाधि में ध्यान उस स्थिति तक पहुँच जाता है कि केवल ध्येय की प्रतीति होने लगती है और ध्यानकर्ता को ध्यान करने की भावना की चेतनता नहीं रहती, क्योंकि ध्येय पूर्णरूप से ध्यानकर्ता को अपने में विलीन कर लेता है । योगी ध्येय से इस प्रकार घुल-मिल जाता है कि उसे इसका भास ही नहीं होता कि वह किसी वस्तु या विषय पर सोच रहा है या ध्यान दे रहा है । 'स्वरूपशून्यमिव ' ( योगसूत्र ३ | ३ ) का यही तात्पर्य. है । समाधि में ध्यानकर्ता एवं ध्येय, व्यक्ति एवं परमात्मा पूर्णतया एक हो जाते हैं और ध्येय से ध्यानकर्ता की पृथक् भावना का लोप हो जाता है । 'समाधि' शब्द प्राचीन उपनिषदों में कहीं भी उल्लिखित नहीं है, केवल मैत्रायणी उपनिषद् में इसका उल्लेख है ( २।१८ ) । गीता | ( २१५३ - ५४ ), वनपर्व ( ३|११ ) एवं शान्तिपर्व ( १६५११६ - २०, चित्रशाला ) में यह शब्द आया है । विष्णुपुराण (६।७१६२ ) में कहा गया है कि वही समाधि कहलाती है जब मन ध्यान के फलस्वरूप उसके ( परमात्मा के ) वास्तविक स्वरूप को धारित कर लेता है और जिसमें (ध्येय, ध्यानकर्म एवं ध्यानकर्ता के ) पृथक् भास का अभाव हो जाता है । ७१ संप्रज्ञात समाधि में ७०. तदेवार्थ मात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः । त्रयमेकत्र संयमः । तदपि बहिरंगं निर्बीजस्य । योगसूत्र ( ३३, ४, ८ ) । ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्ययात्मकेन स्वरूपेण शून्यमिव यवा भवति ध्येयस्वभावावेशात् तदा समाधिरित्युच्यते । तदेतद् धारणा-ध्यान-समाधित्रयमेकत्र संयमः । एकविषयाणि त्रीणि साधनानि संयम इत्युच्यते । तदस्य त्रयस्य तान्त्रिकी परिभाषा संयम इति । तदप्यन्तरंग साधनत्रयं निर्वोजस्य ययोगस्य बहिरंगं भवति । कस्मात्, तदभावे भावात् । १।७ योगसुधाकर, १६ असंप्रज्ञात । राजमार्तण्ड ने 'समाधि' शब्द की व्याख्या की है— 'सम्यगाधीयते एकाग्रीक्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः । योगसूत्र ( ३३ ) पर सदाशिवेन्द्र सरस्वती के योगसुधाकर ( पृ० ११८ ) में संप्रज्ञात एवं असंप्रज्ञात समाधि का अन्तर इस प्रकार समझाया गया है— 'ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृति विना । संप्रज्ञातसमाधिः स्यात् ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः ॥ इति ।.... परवैराग्यपूर्वकं निरोधप्रयत्नेन तस्यापि निरोधे सर्ववृत्तिनिरोधान्निर्बीजः समाधिर्भवति । तदुक्तम् । मनसो वृत्तिशून्यस्य ब्रह्माकारतया स्थितिः । याऽसंप्रज्ञातनामासौ समाधिरभिधीयते ॥ इत्येष विभागो द्रष्टव्यः । ७१. तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत् । मनसा ध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ॥ विष्णुपु० (६७/६२); वाचस्पति, कृत्यकल्प० (मोक्ष० पृ० १७५) एवं अपरार्क ( पृ० १०२६, जिसने व्याख्या की है-'तस्य ब्रह्मणः कल्पनाहीनं ध्येयं ध्यानं ध्यातेति भेदप्रत्यय रहितं... आदि) ने उद्धृत किया है। लिंगपुराण ( ११८१४४ ) में आया है--'चिद्भासमर्थमात्रस्य देहशून्यमिव स्थितम् । समाधिः सर्वहेतुश्च प्राणायाम इति स्थितः ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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